उन्निशवीँ सदी ख्रिस्त अद्ध अन्तमे
विँश सदी अद्ध का प्रवेश हुआ जगतमे ।.....
अनन्त समय - सागर उदरमे
शत वर्ष कैसे बीता
पता न चला दृत क्षणे ।....
कितने हि थे
मनमे कामना
अपूर्ण ही रहा
न है कोई आस्वासना ।
निरपेक्ष काल न रहा
न रुका एक क्षण ।
भवमेँ संभवतः
प्रिय उसे नहीँ कोई जन ।
कितने ही दूःख दर्द अपार
कषण न हुए अन्त
काल कर रहा
सबका रक्त शोषण ।
काल न जाने
दया माया कुछ भी
करता रहा है चलते हुए
अपने कार्योँ का अन्त !
आओ नव युग तुम !
नित नूतन वर्ष
नव दिवसमे
ले कर के अनेकोँ हर्ष !!
विभु-स्वर्गधामसे
लाए हो सुख समाचार
व्याकुल संसारमे
करो तुम वह प्रचार !
वो जिनका जीवन जाने को
थे
उनमे हो तव दया से
नव प्राण संचार !
विगत शताब्दी
घोर ताप से जला
बताना तो ज़रा
सरग का शान्ति
कैसा होता है भला !!
नन्दन कानन का
नव पुष्प संभार
दूषित धरणी धाममे
हो परकाश ।
दिव्य भाव भर दो
हमरे पिण्ड मे तुम ही
पवित्र उत्साह से
मत्त हो हम सभी प्राणी ।
दया हो हम पर
एक कृपा और करना
भारत का पूर्व यश
संग तुम ले आना ।
भवरगंमे रगंते थे वे महाराज
आहा !!! दीनहिन भिखारी है
वे सब आज ..
करो देख ये सब
तुम हम पर करुणा
नव तेजमे एक बार हो
विकशित पुराना !
हे काल !
तुम सर्व शक्तिमन्त !
कोइ न जान पावे
तुमरा आदी अन्त ।
कौन है ये माँप लेगा
तुम्हारा कितना है बल !
होता च्युँकि जलमे स्थल
स्थलमे जल !
यह जो सम्मुख मे दिखरहा
बारबाटी का मैदान !!
टुटा है यहाँ लाखोँ ही गदा
रुके है धड़कन
कभी था ये वीर विहार प्रागंण
भ्रमते है वहीँ आज श्वान शिवागण ।
शुभ शैल सम विशाल सौध होता था
,सीर उठाए कभी गगन को छुँता था
गम्भीर गौरवमय है उसका इतिहास
सुनाता था वो शत्रृ को महिमा थमजाता था तब उसका स्वास
आहा आज ये धरा को देख श्रीहीन
विदारीत हो जाते ये मेरे कोमल हृदय
था यहाँ कभी शस्त्रागार अनेकानेक
ये अब बना है दुर्वादल
का मैदान
कहाँ गये वो कमाण अशनी शब्द
सुन शत्रृ जिसे हो जाते थे
स्तब्ध
वो वीरोँ को जोश दिलानेवाले वाजेगाजे कहाँ है
न दिख रही उद्यम ही
जाति के लिये हमे कहीँ
हे काल !
तुममे एक दिन सभी समाजाते
कहीँ इसलिए उत्कल आज दीनहीन तो नहीँ !
हे काल !
तुम्हारी अटल आदेशसे
ये कैसा दूर्गति उत्कल देश का
हे सती स्रोतस्वती चित्रोत्पला [mahanadi]
तेरे तटमे वसा उत्कल था
सुजला सुफला
पिई ते थे हम तेरा सुधा सम पय [जल]
बढ़ते थे तेरे ही तटमे
वीर शूरचय !
कैसे देखलिया तुने अपने ही पुत्रोँ का निधन ?
देखी और तुझमे अभी भी शेष है जीवन ?
बारबाटी जब हुआ श्रीहीन
कराल कल्होले किए घोर नाद
रिपुकूल हृदयमेँ आतकं प्रमाद
क्युँ न जन्मा तुझसे हे जननी !
थम कैसे गया तेरा वो धमनी ।
धरकर प्रलय भीम रणरुप
शत्रुओँ को करती जग से निःशेष
हाँ शायद तब ऐसा कुछ होता
बारबाटी तेरे जलमे छिपजाता !
उस युगमे स्तम्भित हुए तेरी गति
भला तु कैसे तोड़पाती समय नियति !
महावली धन्य धन्य तुम काल ।
हे कौन तोड़ेगा तुम्हारे तीक्ष्ण करवाल !
था यदि कुछ उत्कल का दोष
दोष अनुमतमे किए हो दोष
हुआ है शास्ति कषण अनेक
न करो हमपर तुम और अत्याचार।
अबसे करुणा तुमसे चाहते है
नव युगमे हो उत्कल का हीत ।
उत्कल तनये दो नव बल
उत्कल पादपे भरो नव फल
उत्कल सरिते पवित्र जीवन
उत्कल कानने स्वर्गीय सुमन
उत्कल आकाशे नव यशः रवि
उत्कल प्रकृति ले लेँ नव छवि
[
पण्डित उत्कलमणी गोपबंधु दास के ओड़िआ कविता Baarobaati का हिन्दी अनुवाद ]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें