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अनंत_वासुदेव_मंदिर भूवनेश्वर कि सर्वप्रथम पुरातन विष्णु मंदिर है ।पुरातन काल मे भूवनेश्वर को शैव क्षेत्र के रुप मे जानाजाता था यहाँ कई प...

शनिवार, 27 अगस्त 2016

मातृभाषा मे लिखनेवाले 3 कवि लेखक

** अतिबड़ी जगन्नाथ दास जी ने 500वर्ष पूर्व ओड़िआ भाषा मे भागवत लिखा !!

तब #Puri मेँ रह रहे संस्कृत पण्डितोँ ने इसे "तेली भागवत" कहकर उपहास किया था ।

कालान्तर मेँ यह ग्रन्थ ओड़िशा मेँ इतना लोकप्रिय हुआ कि हर गाँव मेँ पढ़ाजाने लगा ।

इसे रोजाना पढ़ने हेतु स्वतंत्र गृह "भागवत टुगीँ " बनाये गये और आज भी है  !

**गोस्वामी तुलसी दास जी ने  रामायण को अवधी भाषा मेँ लिखा ।

काशी के पड़िँतो ने तब इसका विरोध किया था और रामचरित मानस को काशी विश्वनाथ के यहाँ परिक्षण करने हेतु रखा गया ।

उपर संस्कृत ग्रन्थ निचे
रामचरित मानस रखा गया ।

सुबह

संस्कृत ग्रन्थ निचे रामचरित मानस उपर पाया गया

और उपर लिखा था सत्यम शिवम् सुन्दरम् !

**

विश्व विख्यात अंग्रेजी कवि मिलटन् ने जब "पाराड़ाइज लष्ट" लिखा था
तब युरोप मेँ लाटिन भाषा को ज्यादा तबज्जो दिया जा रहा था । 

युरोप मेँ साहित्यकारोँ ने मिलटन का तिव्र आलोचना किया !!

<=>

[[इन महात्माओँ ने मातृभाषा मेँ लिखा था इसलिये उनका ग्रंथ इतना जनादृत हो सका]]

<=>

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

1901;संबलपुर भाषाआन्दोलन संक्षिप्त विवरण

1899 मे सम्बलपुर क्षेत्र मे भयानक अकाल पड़ा था !
1866 के तरह ये भी मनुष्यकृत अकाल था ।
1890 मे झारसुगुडा होते हुए
बम्बे कलकत्ता रेलवे ट्रेक निर्माण होने के बाद 1894 मे झारसुगुड़ा से सम्बलपुर तक रेल्वे ट्रेक बिछाया गये ।

जिससे यहाँ उत्पादित खाद्य शस्य लोगोँ से जोरजबरदस्त रेल से दुसरे जगहोँ मे भेजदिया ।

इससे किशानोँ के पास उगाने को न बीज मिला न सरकार ने बीज अमदानी कि ।

खाद्य रप्तानी इतने मात्रा मे बृद्धि हुए कि 3/4 साल मे
यहाँ भयंकर अकाल पड़ा जिससे
सम्बलपुर जिला के 8 लाख मे से एक अक्टोवर 1899 से 30 सेप्टेम्बर 1900 तक
62 हजार 924 लोगोँ का प्राणहानी हुए वहीँ इसके 5गुना लोग
सबकुछ खोओकर निःस्व हो गये ।

संबलपुर के स्वाभिमानी ओड़िआ
अपने मातृभाषा मे चिट्ठी लिखके
सरकार को अपना दुःख दर्द सुनाने को दफ्तरोँ मे भेजने लगे !

लेकिन हिन्दी बंगाली सरकारी कर्मचारी
या तो उन चिट्ठीओँ को फाड़देते थे
या कहीँ फैँक देते थे ।

उस समय के
जिल्ला मुख्यप्रशासन कार्यालय के क्लॉर्क श्री दाशरथी मिश्र को जब इसबारे मे पताचला
उन्होने अपने भाई श्री श्रीपति मिश्र जी के जरिये
दुसरे लोगोँ को हिन्दी बंगाली लोगोँ कि षडयन्त्र का पर्दाफास करवाया ।

एक ओर ओड़िआ सरकारी कर्मचारी

वैकुण्ठनाथ पूजारी ने 1901 मे जनगणना के वाहाने संबलपुर मे गाँव गाँव घुम कर लोगोँ को जनगणनाकरनेवाले लोगोँ को अपना भाषा ओड़िआ बताना ऐसा प्रचार किया ।

जब जिल्लापाल को यह ज्ञात हुआ उन्होने श्री पूजारी जी को जबलपुर ट्राँसफर अर्डर भेजदिया था ।

1901 मे संबलपुर के ही एक युवा वकील श्री चंद्रशेखर वेहेरा ने हिन्दीबांग्ला भाषी कर्मचारीओँ के खिलाफ मोर्चा खोलदिया ।

अब तो सम्बलपुर का बच्चा बच्चा तक
भूबनेश्वरजी के साथ आ खड़े हुए ।

उसी साल May माह मेँ श्रीमदनमोहन मिश्र जी के नेतृत्व मे
जनसैलाव ने जिल्लापाल के कार्यालय का घेराव किया
!

29 जुलाइ 1901 मे श्री व्रजमोहन पट्टनायक जी के नेतृत्व मे एक प्रतिनिधि दल
नागपुर चिफ कमिशनर
फ्रेजर साहब से मिला तथा उन्हे सम्बलपुरमे पुनः ओड़िआ भाषा प्रचलन हेतु दाविपत्र सौँपे गए ।

स्वाभिमान के लिए लढ़ाई लढ़रहे ये पाँच ओड़िआ अब
बड़लाट लर्ड कर्जन तथा मध्यप्रदेश गभर्नर Andrew frezer से मिलने 16 सेप्टेम्बर 1901 मे सिमला पहँचे ।

लेकिन वहाँ उनकी बात सुनने को कोई उच्च अधिकारी न था ।
लेकिन गवर्नर के घरोइ सचिव तथा पूर्वतन सम्बलपुर कलेक्टर
क्रम्पट साब उन्हे मिलगये
उन पाँचो ने उन्हे दाविपत्र थमाया
और सम्बलपुर लौट आए ।

सिमला मे सर्वभारतीय शिक्षानीति सेमिनार मे
बड़लाट कर्जन ने Andrew frezer से पुछा
यदि नागपुर मे मराठी भाषा को सरकारी भाषा बनाया
गया वहीँ सिर मे तेलुगु भाषा
प्रचलन मे है
तो सम्बलपुर मे ओड़िआ सरकारीभाषा क्युँ न हो ?

ओड़िआभाषा प्रति द्वेषपूर्ण मानसिकता रखनेवाले
बड़लाट के प्रश्न पर चुप रहे ।

अब तो लर्ड कर्जनने तय कर लिया कि
वे इस विषय मे निष्पक्ष छानवीन के लिए खुद सम्बलपुर जाएगेँ ।

26 तारिख को
सम्बलपुरवासीओँ ने लर्ड कर्जन का भव्य स्वागत किया था ।

इसबारे मे सम्बलपुर हितैषिणी संवादपत्र ने पुरा पन्ना भरकै लेख छपा था
[हितैषिणी 16 अक्टोवर 1901 पृ.90 देखो]

बड़लाट के डर से हो या सम्बलपुर मे लोगोँ से खुस हो
फ्रेजर ने
घोषणा करदिया कि जल्द संबलपुर मे ओड़िआ भाषा पुनः प्रचलन होगा !

दिर्घ 6 साल बाद संबलपुर मे ओड़िआ पुनः प्रचलन मे आया ।
1 जनवरी 1903 मे ओड़िआ भाषा संबलपुर का सरकारी भाषा बना
50 प्राथमिक स्कुलोँ मे ओड़िआ भाषामे पढ़ाया जाने लगा !

भाषा आंदोलन मे जीतने के बाद अब संबलपुर को
ओड़िशा(कटक ,बालेश्वर,पुरी)
मिला देने को कवायत तेज हो गए ।

http://www.bhubaneswarbuzz.com/updates/odia-articles/odiapost-1901-sambalpur-chandrasekhar-behera-odia-bhasha-andolan

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

उत्कल देश मे आठवीँ सदी मे ही चार रानीओँ ने कि थी शासन

'गृहदेव पाटक'
यह नाम बर्त्तमान Odisha के पल्टिकाल मैप मे आज ढ़ुँडने पर भी नहीँ मिलता !
आज से 1400वर्ष पूर्व
600वीँ सदी मे
‪#‎ शैळोभव‬राजवंश के राजाओँ
का आधिपत्य
उत्कळ तथा समस्त भारतीय उपनिवेशोँ पर था ।
कहते है 6ठीँ सदी मे
‪#‎ भौमकर‬लोग शैळोभवोँ को
‪#‎ उत्कल‬देश मे पराजित कर राजा बने
और
इस तरह से शैळोभव राजवंश का शासन केवल भारतीय उपनिवेश यानी इंडोनेसिया, जावा ,बोर्णिओ , मालेसिया मे सीमित रहगया !
बाद मे इन्ही शैळोभवोँ ने इंडोनेसिया मे श्रीविजय साम्राज्य कि नीँव रखी !
खैर ये भौमकर कौन थे कहाँ से आये
कोई ऐतिहासिक प्रमाण नही मिलते
लेकिन असम के ओहम लोगोँ के साथ इनका वैवाहिक संबन्ध
होने का पता चला है ।
भौमकर राजा पहले पहल बौध धर्म अनुयायी थे
परंतु च्युँकि अब उनकी नयी राजधानी ‪#‎ जाजपुर‬मे स्थापित हो गयी
प्रजा को देख राजा को भी शाक्त धर्म उपासक बनना हुआ ।
सातवीँ सदी मे हर्ष वर्धन ने भौमकर राजाओँ को परास्त कर उत्कलदेश को अपने शासन अधिनस्त कर लिया ।
और अन्ततः 8 वीँ सदी मे ये कुछ हदतक स्वतंत्र हुए !
आसाम तब कामरुप कहलाता था और सातवीँ सदी मे
आसाम के अहोम राज्य मे
कोई एक व्यक्ति समुचे राज्य पर
एकाधिपत्य शासक नहीँ होता था
वरन 12 सामन्तोँ के हातोँ मे शासन भार होता था
इस तरह के शासनप्रणाली को सामन्त चक्र शासन कहाजाता है ।
अहोम लोगोँ के नामसे बादमे इस क्षेत्र का नाम आसाम हुआ है ।
अब च्युँकि भौमकर जाति के लोगोँ का अहोम जाति के लोगोँ के साथ सांस्कृतिक वैवाहिक संपर्क था
इसलिये 7वीँ सदी के उत्कल देश मे भी सामन्त चक्र शासन प्रणाली लागु हुआ होना मानाजाता है !
उनदिनोँ बर्तमान जाजपुर जिल्ला मे यह गृहदेव पाटक सहर हुआ करता था ।
आगे चलकर इसी भौमकर राजवंश के एक नहीँ दो नहीँ
चार रानीओँ ने उत्कल देश सिँहासन अलंकृत किया था
जिनमे से ‪#‎ बकुलमहादेवी ‬प्रमुख है ।
मानाजाता है भूयाँ जनजाति के लोग ही प्राचीन भौमकरोँ के बर्तमान वंशज है ।

आठवी सदी के भौमकर राजा शुभकर परमसौगत के राजत्वकाल मे हर्ष साम्राज्य से उत्कल प्रायः स्वतंत्र हो गया था
शुभकर के पुत्र शान्तिकर ने नागदेश राजकन्या त्रिभुवन महादेवी से विवाह करलिया
लेकिन वो राज भोग नहीँ पाया
उसकी अकाल मृत्यु हो गई ।
शान्तिकर के युँ अचानक मृत्यु से
सामन्तचक्र भूयाँ सामन्तोँ ने सर्व सहमति से परम वैष्णवी त्रिभूवन महादेवी को भौम सिँहासन मे बिठाया !
इस राज्याभिषेक के संदर्भ मे एक ताम्र फलक मिला है
जिसमे लिखा है
"हे देवी !
पूर्व भी संसार त्यागकर धर्म कार्य को स्वयं का सर्वस्व मानकर गोस्वामिनीओँ ने प्रजाओँ के सुखदुख कि रक्षा के लिए बहुबार बसुन्दरा को चलाया था !
इसी तरह अब आप भी प्रसन्न होइए और इसी तरह सुचिर साम्राज्य चलाओ
लोगोँ का अनुग्रह करो
परंपरागत राज्यलक्षी को अपना मानकर स्वीकार करो
सामन्तचक्र द्वारा इस तरह के निवेदन से त्रिभुवन माहादेवी कात्यायनी कि तरह सिँहासन पर जा बैठी"
इससे पताचलता है कि इससे पहले भी कोई कोई रानी उत्कलीय सिँहासन पर बैठकर राजत्व कर चुकि थी ।
भौम वंश मे गौरी महादेवी ,बकुळ महादेवी ,परम महेश्वरी ,दण्डी माहादेवी नाम्नी रानीओँ ने राजत्व किया
इससे उत्कल देश मे प्राचीनकाल से ही नारीओँ को पुरुषोँ के बरबार सम्मान मिलने
कि बात प्रमाणित हो जाता है ।

बक्सी जगबंधु और 1817 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कि कहानी

जगबंधु बिद्याधर महापात्र भ्रमरवर राय
संक्षेप मे "बक्सि जगबंधु" !
लोग स्नेह तथा गौरवभाव से पाइक बक्सी भी कहा करते थे ।
19वीँ सदी तक भारतके लगभग ज्यादातर हिस्सोँ पर अंग्रेजोँ का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभुत्व स्थापित हो गया था !
1803 मेँ अंग्रेजोँ ने कटक के बारबाटी दूर्ग को हमला करके जीत लिया !
महामंत्री जयीराजगुरु के नेतृत्व मे
बक्सी जगबंधु और उनके साथीओँ ने 1803 से 1805 तक गोरिला वार और अन्ततः 1805 मे आमने सामने कि लडाई कि थी जिसमे
जयीराजगुरु को धर लिया गया ।
ब्राह्मणकुल मे जन्मेँ
अंग्रेजोँ के हातोँ फाँसी पानेवाले ये प्रथम शहीद है ।
खैर अंग्रेजोँ से आमनेसामने के लढ़ाई मे हारने के बाद बक्सी ने महशुस किया कि
अपने भाईओँ मे सर्व प्रथम जातिवाद का जहर खत्म करना होगा
वे अपने पैतृक भूमि ररगं लौट आए
और लोगोँ को संगठित करने लगे ।
मोगल व मराठीराज से प्रभावित हो अलगथलग पड़चुकि पाइक जाति को एक करने के लिये उन्होने अपना जीवन नौछावर करदिया !
ये काम इतना सहज न था !
गरीब शोषित लज्जित जाति को उसके गौरवमय अतीत कि याद दिलाना तथा एक उज्वल भविष्य गठन हेतु संकल्पबद्ध करवाना एक व्यक्ति के लिये अत्यन्त कष्टकर व्यापार है ।
इसबीच 1810 मे अंग्रेजोँ ने राजासे मिले करमुक्त भूमिओँ पर टैक्स लगाने शुरुकरदिए ।
और 1811 मे सूर्यास्त आइन के बलपर उत्कलीय जमिदारोँ से जमिदारी छीन कै बंगाली गोरचटोँ को दे दिया ।
ये घटना आग मे घी डालने जैसा था ।
पाइक खण्डायत जिन्हे करमुक्त भूमि मिले हुए थे
वो इस अन्याय के विरुध उठ खड़े हुए
और इस तरह से भारत के प्रथम जन आंदोलन कि घटना
ओड़िशा के खोर्दा मे घटित हुआ !
पहले पहल जमिदार राजाओँ द्वारा
कुछ एक
छिटपुट विद्रोह के बाद
बक्सी जगबंधु के नेतृत्व मे
1817 सालमे एक बड़ा विद्रोह हुआ जिससे बंगाल मे चैन कि निद्रा मे सोये अंग्रेजोँ की निँद हाराम हो गये ।
****
इस साल पाइक विद्रोह को 200 साल पुरे हुए है ।
च्युँकि फिलहाल एक राष्ट्रवादी सरकार केन्द्र मे शासक बना है
मेरा व्यक्तिगत विचार है केन्द्र सरकार Odia paika कोँ के सम्मान मे Paika रेजिमेँट बनाए
यही उनके लिए सच्ची श्रद्धाजंली होगी !!
कौन थे बक्सी जगबंधु ?
बक्सी जगबंधु कि 1804 से पूर्व जीवनी अबतक ठिक से पता नहीँ चल सका है ।
कुछ ऐतिहासिक उनके जीवनकाल को 1780 से 1829 तक सीमित बताते है ।
उन्हे उनके पूर्वपुरुषोँ से वंशानुक्रमे बक्सी उपाधि मिला था ।
खोर्दा राजा के सेनापति दायित्व वहन करते हुए
उन्हे राजा के बाद राज्य मे सबसे शक्तिशाली व्यक्तित्व के रुप मे जाना जाता था ।
उनके पूर्वजोँ को खोर्धा राजा से ररङ्ग किल्ला का
जमिदारी मिला था
वहीँ
उनके परिवार का सेरगड़ तथा बड़म्बा राजपरिवार से वैवाहिक संबन्ध बताता है कि
वे यथा संभव क्षत्रिय खण्डायत बंशज रहे होगेँ ।
बक्सी जगबन्धु बिद्याधर भोइवंश के प्रथमराजा गोविँद विद्याधर के मंत्री दनेइ विद्याधर के अष्टम वंशधर बताए जाते है ।
अंग्रेजी ऐतिहासिक ष्टार्लिगं ने अपने ओड़िशा इतिहास नामक पुस्तक
मे उन्हे रुपवान तेजस्वी वाकपटु शक्तिशाली पुरुष बताया है ।
~घटनाक्रम~
1817 मे अंग्रेजोँ ने घुमुसर क्षेत्र के राजा धनजंय भंज को
एक हत्या के मामले मे फसाकर
गिरफ्तार करलिया !
इसके प्रतिवाद मे 300/400 कंध
जनजाति के योद्धाओँ ने
वाणपुर मे घुसकर सरकारी दफ्तरोँ को जलाया
सरकारी खजाने लुट लिए ।
इन कंध आदिवासीओँ के साथ खोर्द्दा पाइक योद्धा मिलगये
और अंग्रेजोँ के खिलाफ विद्रोह घोषणा करदिया गया ।
। स्वतंत्रता सेनानीओँ के प्रथम शिकार बने
अंग्रेजोँ के शुभचिँतक
चरण पट्टनायक !
पाइकोँ के साथ अंग्रेजोँ का
रगंपड़ा बालकाटि पिपिलि आदि जगहोँ मे संघर्ष छिड़ गया ।
इन क्षेत्रोँ मे अंग्रेजोँ को मुँह कि खानी पड़ी !
पाइक वीर पुरी कि ओर अग्रसर हुए
परंतु यहाँ वो चुक गये
आधुनिक अश्त्रशत्रोँ के साथ पहले से तैयार अंग्रेजोँ के आगे वो हारने लगे ।
अंग्रेजोँ ने पुरी राजा मुकुन्द देव को बंदी बना लिया
उन्हे कटक भेजदिया !
1817 एप्रेल 12 तारिख मे सामरिक कानुन लागु हुआ !
मेजर सार जी मार्टिनडेल नये कमिशनर नियुक्त हुए ।
उसी साल अक्टोवर तक विद्रोह दमन हो गया
परंतु अंग्रेजोँ को चैन न था ।
च्युँकि जगबंधु बिद्याधर ,कृष्णचंद्र भ्रमरवर ,दलबेहेरा तथा उनके अनुचरोँ ने
जंगलोँ मे डेरा बना लिया
और बीच बीच मे सरकारी माल मकान पर हमले होता रहा ।
अंग्रेजोँ ने जगबंधु के परिवारवालोँ को बंदी बनाया
हर मुमकीन कोशिश कि
लेकिन उन्हे तथा उनके मित्रोँ को पकड़ पाने मे नाकामियाब हुए ।
लेकिन धीरे धीरे स्थानीय लोग
मूलतः राजा तथा पूर्व जमिदारोँ ने उनको साहायता देने बंद करदिया
उधर कुछ एक विद्रोहीओँ ने
अंग्रेजोँ द्वारा माफी मिलने तथा पेनसन के एवज मे आत्मसमर्पण कर लिया ।
अन्ततः 27 मई 1825 मे बिमार हालत मे
बक्सी जगबंधु को उनके विद्रोही मित्रोँ द्वारा कटक लाया गया
उन्हे
कटक बक्सी वजार मे अंग्रेजोँ ने गृहवंदी बनाए रखा
और
24 जनवरी 1829
को उनका जीवनदीप बुझगया ।
कुछ डरपोक लोगोँ के लिए
जीता हुआ बाजी हारगये ये योद्धा
हाँ मैँ कहुगाँ अंग्रेज नहीँ ये भीरु लोगोँ ने ही उनको घुट घुट कर मरजाने को मजबुर करदिया
जिनके लिए वो मरना चाहते थे
वह जनता चुप बैठ गयी ।

शनिवार, 13 अगस्त 2016

जागो बन्धनहरा

मूल रचना - कवि अनन्त पट्टनायक
[1912-1987]

नवीनयुग के तुम युवक जागो रे
जागो बन्धनहरा ,
वक्ष रक्त से लोखोँ जीवनोँमे
जलाओ आलोकधारा !! 0

तोड़ दो बन्धन सारे
रोधन करो बंद
लुप्त हो ये जाति उपजाति
खण्डित शत वतन !!

महामानवोँ के शंख ध्वनी से शमन हो दुःख ज्वाला
जागो बन्धनहरा !! 1

मृत्यु के द्वार करो चरण अर्पण
गाओरे अमर गान,
पोछ दो आज
मानव माथा से
संचित अपमान
लांघ बनानी शैल सागर
पोषणकरो तिमिर कारा !! 2


मरु पथे पथे निर्झर गढ़ो
यात्रा करो हे करो
स्पन्दन भर करोड़ोँ हृदय मे
प्रदीप उच्चमे धरो
शंकित हो कंपित प्राणे
चन्द्र तपन तारा !! 3

संधानी !
तुम्हारे संधान पथे
होगेँ काँटे उठाए शिर
सम्मुख तुम्हारे कोहरा रचेगेँ
मोह ममता के नीर (जल) !
भिन्न कर वह तन्द्रा स्पर्श
हसाओ भुवन सारा !! ।4।

विदिर्ण कर दो भूतकाल का जीर्ण जीवन
जागो रे भविष्यकाल !
चूर्ण करे विजय रथ तुम्हारे
पीड़ाओँ के उँचे पर्वत !

टुटपड़े आज बेड़ीआँ सारे
बनाओ विजय माला
जागो बन्धनहरा !!

#बन्धनहरा = #बन्धनमुक्त

***
कवि अनन्त पट्टनायक जी
अपने युवाकालमे जब
इस कविता को Odia मे लिखा था
उनदिनोँ छोटे छोटे देशोँ मे बँटा भारत पराधीन था ।
कवि अनन्त पट्टनायक जी का जन्म खोर्दा जिला चणाहाट गाँव मे 1912 साल मे हुआ था !

उन्हे उनके #अवान्तर कविता पुस्तक के लिए केन्द्र साहित्य एकादमी पुरस्कार मिला है ।
उनकी प्रमुख रचनाओँ मे रक्तशिखा ,छाई र छिटा,अलोड़ालोड़ा ,अवान्तर तथा किँचित आदि पाठकोँ मे सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए !

जागो बन्धनहरा फिलहाल
Odisha के दशवी मातृभाषा साहित्य किताव मे स्थानीत हुआ है
आशा है आपको इस कविता कि अनुवादित अंश पसंद आवेगा

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

उठो कंकाल ଉଠ କଙ୍କାଳ [[ଗୋଦାବରୀଶ ମହାପାତ୍ର]]

ଦୁର୍ଗମ ଗିରି ଦୁର୍ଗ ପ୍ରାଚୀର ଜୀର୍ଣ୍ଣ ଦୁଆରେ ବସି,
ଡାକେ ତାନ୍ତ୍ରିକ ମନ୍ତ୍ର ସାଧନେ ଜାଗ୍ରତ ପୁରବାସୀ !
दुर्गम गिरि दुर्ग प्राचीर जीर्ण द्वारे बैठे
कहे तान्त्रिक मंत्र साधने जाग्रत पुरवासी !

ପୃଥ୍ବୀ ବିଦାରି ବାରବାଟୀ ମଡ଼ା ଉଠ ଉଠ ଚଞ୍ଚଳ,
ଖୋରଧାର ଶତ ସରଦାର ଶିର କର ଉନ୍ନତତର !
पृथ्वी विदारि बारबाटी लाश उठो उठे चंचल
खोरधाके शत सरदार शिर करो उन्नततर !
ଉଠ କଙ୍କାଳ, ଛିଡ଼ୁ ଶୃଙ୍ଖଳ,ଜାଗ ଦୁର୍ବଳ ଆଜି,
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
उठो कंकाल छिड़ु शृखंल जाग दुर्वल आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि
ମେଘାସନ ତଳ ମନ୍ଦ୍ର-ନିନାଦ ବାଜେ ଫୁଲଝର ବୁକେ
ରାଇବଣିଆର ରଣ ସଙ୍ଗୀତ ଗଞ୍ଜାମ ପଥେ ଡାକେ୤
मेघासन तल मन्द्र निदान बाजे फुलझर बुके
राइबणिआर रण संगीत गंजाम पथे डाके
ସିଂଭୂମ କହେ ମରଣ ଦୁଆରେ ବିଶାଖାପାଟଣା ଚାହିଁ
ସନ୍ତାନ ମୁଖେ, ଶମଶାନ ବୁକେ ପ୍ରାଣ ସଙ୍କେତ ନାହିଁ୤
सिँभूम कहे मरण द्वारे विशाखापाटना चाहिँ
सन्तान मुखे शमशान बुके प्राण संकेत नहीँ
ଉଠ ଦୁର୍ବଳ, ଜାଗ କଙ୍କାଳ, ଛିଡ଼ୁ ଶୃଙ୍ଖଳ ଆଜି
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
उठो दुर्वल जाग कंकाल छिड़ु शृखंल आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि
ଚିର ବନ୍ଦିତା ବନ୍ଦିନୀ ମାଆ ବନ୍ଧନ ଫେଇବାରେ,
ସମ୍ବଲପୁର ସମ୍ବଳ ବୀର ଦମ୍ଭ କି ନାହିଁ ଧରେ ?
चिर वन्दिता वन्दिना माता
बन्धन खोलने के लिए
संबलपुर संबल वीर दम्ब कि उनमेँ नहीँ ?

ଗଙ୍ଗା ଧୋଇଲା ଚିକୁର ଯାହାର, କୃଷ୍ଣା ଚରଣ ତଳ
ଶମଶାନ ଆଜି ମଡ଼ାଦେଶ ଆଜି, ଏହି ସେ ଉତ୍କଳ୤
गंगा धोति थी चिकुर जिसकी
कृष्णा चरण तल
श्मशान आज मड़ा देश आज
यही वह उत्कल
ଜାଗ ଦୁର୍ବଳ, ଛିଡ଼ୁ ଶୃଙ୍ଖଳ, ଉଠ କଙ୍କାଳ ଆଜି
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
जाग दुर्वल टुटे शृखंल
उठो कंकाल आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि
ନିଜାମ ଭୁବନେ କଳବର୍ଗର ଅର୍ଗଳ ଏଡ଼ି ଦିନେ
ଗଜପତି ବୀର ‘ବେରାର’ ଭେଦିଲା ଜୟ ଗୌରବ ଗାନେ ୤
निजम भुवने कलवर्गोँ के अर्गल भेदि एकदिन
गजपति वीर वेरार भेदिला जय गौरव गाने
ଦୁର୍ବାର ଗଡ଼, ‘ଦେବର କୋଣ୍ଡା’ କହେ ଆଜି ସେହି କଥା
ବାରବାଟୀ ବୀର ଦେଇଥିଲା ତାର ରଣେ ଉନ୍ନତ ମଥା୤
दुर्वार गड़ देवर कोण्डा गाए आज वही गाथा
बारबाटी बीर दिए थे उन्नत उनके मथा

ଛିଡ଼ୁ ଶୃଙ୍ଖଳ, ଜାଗ କଙ୍କାଳ, ଉଠ ଦୁର୍ବାର ଆଜି,
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
टुटे शृखंल जागो कंकाल उठो दुर्वार आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि
ଖଣ୍ଡାକୁଶଳ ଖଣ୍ଡାୟତର ଦୁର୍ବାର କରବାଳେ
ଅଜେୟ ବଙ୍ଗ-ବାହିନୀ ଶୋଇଲେ ‘ଶତଗଡ଼’ ପ୍ରାନ୍ତରେ
खण्डाकुशल खण्डायतोँ के दूर्वार करवाले
अजेय बंग वाहिनी शोएथे शतगड़ प्रान्तरे
ଗଉଡ଼ ଭୁବନ ହେଲା ପଦାନତ ମଗଧ ପାଇଲା ଲୀନ,
ପ୍ରତାପୀ ପୁଷ୍ପମିତ୍ର ହଟିଲା ଦେଇ ଉତ୍କଳେ ରଣ୤
गौड़ भुवन हुआ पदानत मगध सूर्य हुआ लीन
प्रतापी पुष्पमित्र हटा लढ़ कर उत्कलमे रण
ଜାଗ କଙ୍କାଳ, ଜାଗ କଙ୍କାଳ,ଜାଗ କଙ୍କାଳ ଆଜି
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
जागो कंकाल जागो कंकाल जागो कंकाल आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि

କଥା କହ କଥା କହ କଙ୍କାଳ! ସେ କେତେ ଯୁଗର କଥା,
ହିମାଚଳ ତଳେ ଟେକିଥିଲା ଯେବେ ଏ ଜାତିର ବୀର ମଥା୤
कथा कहो कथा कहो कंकाल !
वो कितने युग कि कथा
हिमाचल निचे जब
खड़े थे ये जाति वीर उठाए अपने माथा
ବିଜୟୀ ‘ବିଜୟ ନଗର’ ମାଗିଲା ଶରଶ ଚରଣ ତଳେ,
‘ବାହାମନୀ’ ପତି ଯବନ, ଶମନ କାତରେ ଲୁଚିଲା ଘରେ୤
विजयी विजय नगर मागेँ थे शरण चरण तेरे
बाहामनी पति यवन
राजा छिपा या घर मे एक ही हुँकार से तेरे
ଉଠ କଙ୍କାଳ, ଉଠ ଦୁର୍ବଳ, ଛିଡ଼ୁ ଶୃଙ୍ଖଳ ଆଜି
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
उठो कंकाल उठो दूर्वल
टुटे शृखंल आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि
ହାଡ଼ ପାଶୁ ଆଜି ଭାଷା ବହି ଆସୁ, ଫୁଟୁ ମଡ଼ା ମୁଖେ ହସ
ଭଗ୍ନ ଏ ଗଡ଼ ମନ୍ଦିରେ ଶୁଭୁ ଦୁନ୍ଦୁଭି ଅହର୍ନିଶ୤
हड्डी के पास से भाषा बह आए
लाश उष्टे फुटे हस
भग्न ए गड़ मन्दिरे सुनाई
दे फिर दुन्दुभी अहर्निश
ଶମଶାନ ଧୂଳି ଅଞ୍ଜଳି ଭରି ନିଅ ପୁରବାସୀ ଜନ;
ଲକ୍ଷ ଜୀବନ ସାକ୍ଷ୍ୟ ଦେବ ସେ ଗୌରବେ ମହୀୟାନ୤
श्मशान धूल अञ्जुल भर लो पुरवासी जन;
लक्ष जीवन साक्ष्य देगा वो गौरवे महीयान
ଉଠ କଙ୍କାଳ, ଭେଦି ମହାକାଳ,ଜାଗ ଦୁର୍ବଳ ଆଜି
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
उठो कंकाल भेदी महाकाल
जाग दूर्वल आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि
ବେଳନାହିଁ, ବେଳ ନାହିଁ, କଙ୍କାଳ ! ଟେକ ଚଞ୍ଚଳ ମଥା
ବିଦାରି ଉପଳ ନିର୍ମଳ ତବ ପିଞ୍ଜରୁ ଉଠୁ ବ୍ୟଥା,
वक्त नहीँ वक्त नहीँ कंकाल !
उठाओ चचंल माथा
विदारि उपल निर्मल तव
पिजंरु उठे व्यथा !
ବାଜିଉଠୁ ବାରେ ମରଣ-ବିଜୟୀ ବଂଶୀ ସେ ବୁକୁତଳେ,
ଧୂର୍ଜଟି ଜଟାଜୁଟ କମ୍ପାଇ ଯୌବନ କୁତୂହଳେ୤
वज उठे अब मरण विजयी वंशी वही हूदयस्थले
धूर्जटि जटाजुट कम्पाइ यौवन कौतुहले
ଉଠ କଙ୍କାଳ, ଉଠ ଦୁର୍ବଳ, ଜାଗ କଙ୍କାଳ ଆଜି
ଉଠୁ ଗତ ଗୌରବ, ହୃତ ଗୌରବ, ମୃତ ଗୌରବ ରାଜି୤
उठो कंकाल उठो दुर्वल जागो कंकाल आजि
उठे गत गौरव हृत गौरव मृत गौरव राजि

ଉଠ କଙ୍କାଳ
– ଗୋଦାବରୀଶ ମହାପାତ୍ର
मूल रचना गोदावरीश महापात्र

अमृतमय

अमृतमय
–स्वभाव कवि गंगाधर मेहेर [ସ୍ବଭାବ କବି ଗଙ୍ଗାଧର ମେହେର]

नव विकशित पुष्प गंध
नव सरस कविता छन्द
नव विहग मधुर तान
शिशु सरल तरल गान
नव प्रफुल्ल कमल कानन
नव सुकुमार शिशु आनन्द
अमृतमय अमृत रय
भसाए लेता है जीवन

धीर चकित शीतल वात
चिर ललित कुमुद नाथ
क्षीर धवल चंद्रिका जाल
नीर दीन दक्ष घनमाल
मृदु मधुर आलोक उषार
नव पल्लव पतित तुषार
अमृत मय अमृत रय
निम्मजित दिए संसार

चिक मिक करते तारा
टप टप जलधर धारा
तमनाशने धावित धष्ठि
तम मुक्त अवनी हृष्ट
गिरिगर्भ प्रसूत निर्झर
दूर लम्फित प्रपात झर्झर
अमृतमय अमृतरय
जीवन कर रहा जर्जर

मैँ तो अमृत सागर विन्दु
नभे उठा था त्यागे सिन्धु
गिरा मिला फिर अमृत धारे
गति कर रहा वह अकुपारे
पथ मे शुखा गर पाप ताप से
हो शिशिर फिर पतित होना है धरा मे
अमृतमय अमृतरय
मुझे मिलना ही एक दिन सागर मे

Origional odia poem

ଅମୃତମୟ
– ସ୍ବଭାବ କବି ଗଙ୍ଗାଧର ମେହେର
ନବ ବିକଶିତ ଫୁଲ ଗନ୍ଧ
ନବ ସରସ କବିତା ଛନ୍ଦ
ବନ ବିହଗ ମଧୁର ତାନ
ଶିଶୁ ସରଳ ତରଳ ଗାନ
ନବ ପ୍ରଫୁଲ୍ଲ କମଳ କାନନ
ନବ ସୁକୁମାର ଶିଶୁ ଆନନ୍ଦ
ଅମୃତମୟ ଅମୃତ ରୟ
ଭସାଇ ନେଉଛି ଜୀବନ୤
ଧୀର ଚକିତ ଶୀତଳ ବାତ
ଚିର ଲଳିତ କୁମୁଦ ନାଥ
କ୍ଷୀର ଧବଳ ଚନ୍ଦ୍ରିକା ଜାଲ
ନୀର ଦାନ ଦକ୍ଷ ଘନମାଳ
ମୃଦୁ ମଧୁର ଆଲୋକ ଉଷାର
ନବ ପଲ୍ଲବ ପତିତ ତୁଷାର
ଅମୃତମୟ ଅମୃତ ରୟ
ମଜ୍ଜାଇ ଦେଉଛି ସଂସାର୤
ମିଟି ମିଟି ଜକ ଜକ ତାରା
ଟପ ଟପ ଜଳଧର ଧାରା
ତମନାଶନେ ଧାବିତ ଧଷ୍ଣି
ତମ ମୁକତ ଅବନୀ ହୃଷ୍ଟ
ଗିରିଗରଭ ପ୍ରସୂତ ନିର୍ଝର
ଦୂର ଲମ୍ଫିତ ପ୍ରପାତ ଝର୍ଝର
ଅମୃତମୟ ଅମୃତରୟ
ଜୀବନ କରୁଛି ଜର୍ଜର୤
ମୁଁ ତ ଅମୃତ ସାଗର ବିନ୍ଦୁ
ନଭେ ଉଠିଥିଲି ତେଜି ସିନ୍ଧୁ
ଖସି ମିଶିଛି ଅମୃତ ଧାରେ
ଗତି କରୁଛି ସେ ଅକୂପାରେ
ପଥେ ଶୁଖିଗଲେ ପାପ ତାପରେ
ହୋଇ ଶିଶିର ଖସିବି ତା ପରେ
ଅମୃତମୟ ଅମୃତରୟ
ସହିତ ମିଶିବି ସାଗରେ୤

बुधवार, 10 अगस्त 2016

अमिनूल इस्लाम और ओड़िशा कि कोहिनूर प्रेस

ओड़िशा मे कोहिनूर प्रेस उतना हि फैमस है जितना कोहिनूर हीरा दुनियामे !
ओड़िशा मे ज्यादातर पुराण शास्त्र ज्यौतिष पंजिका कोहिनूर प्रेस मे Odia भाषामे छपते है ।
कोहिनूर प्रेस के संस्थापक
अमिनूल ईसलाम् ने
आजसे आठदशकोँ पहले इस प्रेस कि निँव रखी थी !
कोहिनूर प्रेस कि राशिफल व पंजिका को जगन्नाथ मंदिर मुक्तिमंडप द्वारा स्विकृति प्रदान कि गई है ।
अमिनूलजी ने मुसलमान हो कै भी ना सिर्फ अपने प्रेस के जरीये हिन्दु पोथी पुराण तथा ग्रंथ प्रकाशन किया आप कई संस्कृत काव्य ग्रंथोँ को ओड़िआभाषा मे भावानुवादक व नवग्रंथ रचयिता भि रहे !
1928 सालमे, अमिनूल कटक आए और अपनी जीजाजी के संग मिलकर
मूद्रण व्यवसाय सिखे और फिर कटक मे ही कोहिनूर प्रेस व कोहिनूर प्रेस पुस्तक भंडार कि स्थापना किए थे ।
व्रिटिश शासन काल मे
प्राँत के स्वतंत्रता सेनानी यहीँ पोस्टर होर्डिगं छपवाते थे
देशात्मवोधक किताबेँ छाँपने के कारण
कईबार कोहिनूर प्रेस मे छापे ड़ाले तलाशी लि गई
और एक आद बार पकड़े भी गये ।
अमिनूल साहब को हिन्दु पोथी पुराण प्रति जितना प्रगाढ़ श्रद्धा व आदरभाव था
उतना ही ज्योतिष शास्त्रोँ पर यकिन !
उन्होने तय किया कि
वो एक ऐसे पंजिका प्रकाशित करवाएगेँ
जो हर तरह से निर्भुल ,सटिक गणना करता हो ।
इससे पहले Odisha मे अरुणोदय प्रेस पंजिका नामसे एक ही फलित ज्योतिष पोथि प्रकाशित होता था !
अमिनूल जी ने प्रख्यात विद्वान पठाणि सामन्त के वंशज...श्री गदाधर सिँह सामन्त ,
लिँगराज खड़िरत्न परिवार वंशज...पंडित श्री हरिहर खडिरत्न जी के सामुहिक सहायता से
एक पंजिका का पांडुलिपि प्रस्तुत किए थे । सामान्य संशोधन पश्चात
पुरी मुक्ति मंडप सभा से इस नूतन पंजिका को स्विकृति मिल गया था
और इस प्रकार 1935 मे कोहिनूर पंजिका का जन्म हुआ ।
अमिनूल जी ने अपने जीवनकाल मे अनेकोँ ग्रथं लिखे
उनके द्वारा कई हिन्दु ग्रंथोँ का पुनः मुद्रण किया गया !
अमिनूल इस्लाम एक सच्चे देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी थे ।
उन्होने गोपबंधु दास हरेकृष्ण महताव नवकृष्ण चौधुरी भागिरथी महापात्र आदि दिग्गज
उत्कलीय मनीषिओँ के साथ मिल कर देश मातृका के लिए काम किया था ।
~पुरस्कार तथा सम्मान~
अमिनूल इस्लाम जी को बिजु पट्टनायक जी के शासनकाल मे पद्मकेशरी उपाधी मिला था
वहीँ जानकी वल्लभपट्टनायाक द्वारा चंद्रशेखर उपाधी प्राप्त हुए ।
1985 साल मे श्रीपुरुषोत्तम पुरी जगन्नाथ धाम श्रीमंदिर मे उनका श्राद्ध आयोजन हुआ था ।
किसी इस्लामीक व्यक्ति का श्री मंदिर मे श्राद्ध होना विरल घटना होने के साथ साथ सम्मानजनक भी है ही ।

बुधवार, 3 अगस्त 2016

मातृभूमि

जिस काल बालक
भ्रम सकता है
घर पड़ोशीओँ का
उस काल जान जाता है
अन्य घर सब है
उसके संगी बालकोँ का
फिर जब वह
अपने पड़ा [वार्ड] से
पासवाले पड़ा मे है जाता
उस समय उस पड़ा को भी वो अपना ही है मानता ।
अन्य गाँव मेँ जब जाए वह
अपने गाँव से हो दूर,
उस काल समझता है
जिस गाँव मे घर है उसका
वह गाँव ही है उनका !
अपने गाँव का नदी तालाब
बगिचा आदि सकल,
स्वयं का ही कहता है
और समझता है इन्हे दुसरोँ से बहतर !
बड़ा होकर वह जब जाता
अन्य राज्योँ मे करने भ्रमण
वखानता है वहाँ अपने राजा ,राज्य -लोगोँ का श्रेष्ठ सभी गुण
हाती घोड़ा से लेकर
भेड़ बकरी सभी उसके राज्य के उत्तम
सकल सुख ले रहा आकार उसके ही राज्य मेँ केबल
उससे भी उच्च हो कोई कभी जब करे देशान्तर
स्वर्ग से भी उँचा लगे उसे
स्वदेश मेँ उसका घर
ज्ञानबल से
जब जनाता है
सभीओँ के पिता
है जगतपति
सहोदर ज्ञान करे
मानवसमाजके प्रति !।
तब वह जानता है
जो जितना करता है दुजोँ का उपकार
विश्वपतिके विश्वगृहमे
वह उतना ही योग्य कुमर [पुत्र]
इसी प्रकार
राज्य देश विश्व का ये जो है कथा
मानव जीवन मे प्रतीत होता है ,
दर्शित होता है सर्वथा
"मातृभूमि मातृभाषा से ममता
जिसके हुदय मे जन्मा नहीँ
उसको भी यदि ज्ञानी गणोँ मे गिनेगेँ
अज्ञानी रहेगेँ नहीँ"
*****[[स्वभाव कवि गंगाधर मेहर कि #अर्घ्यथाली काव्य ग्रंथ से
मातृभुमि कविता का हिन्दी अनुवाद ]]
कविता कि " चिन्हित अन्तिम दो लाइनेँ
ओड़िशा मे बच्चा बच्चा जानता है !!!

बारबाटी

उन्निशवीँ सदी ख्रिस्त अद्ध अन्तमे
विँश सदी अद्ध का प्रवेश हुआ जगतमे ।.....
अनन्त समय - सागर उदरमे
शत वर्ष कैसे बीता
पता न चला दृत क्षणे ।....
कितने हि थे
मनमे कामना
अपूर्ण ही रहा
न है कोई आस्वासना ।
निरपेक्ष काल न रहा
न रुका एक क्षण ।
भवमेँ संभवतः
प्रिय उसे नहीँ कोई जन ।
कितने ही दूःख दर्द अपार
कषण न हुए अन्त
काल कर रहा
सबका रक्त शोषण ।
काल न जाने
दया माया कुछ भी
करता रहा है चलते हुए
अपने कार्योँ का अन्त !
आओ नव युग तुम !
नित नूतन वर्ष
नव दिवसमे
ले कर के अनेकोँ हर्ष !!
विभु-स्वर्गधामसे
लाए हो सुख समाचार
व्याकुल संसारमे
करो तुम वह प्रचार !
वो जिनका जीवन जाने को
थे
उनमे हो तव दया से
नव प्राण संचार !
विगत शताब्दी
घोर ताप से जला
बताना तो ज़रा
सरग का शान्ति
कैसा होता है भला !!
नन्दन कानन का
नव पुष्प संभार
दूषित धरणी धाममे
हो परकाश ।
दिव्य भाव भर दो
हमरे पिण्ड मे तुम ही
पवित्र उत्साह से
मत्त हो हम सभी प्राणी ।
दया हो हम पर
एक कृपा और करना
भारत का पूर्व यश
संग तुम ले आना ।
भवरगंमे रगंते थे वे महाराज
आहा !!! दीनहिन भिखारी है
वे सब आज ..
करो देख ये सब
तुम हम पर करुणा
नव तेजमे एक बार हो
विकशित पुराना !
हे काल !
तुम सर्व शक्तिमन्त !
कोइ न जान पावे
तुमरा आदी अन्त ।
कौन है ये माँप लेगा
तुम्हारा कितना है बल !
होता च्युँकि जलमे स्थल
स्थलमे जल !
यह जो सम्मुख मे दिखरहा
बारबाटी का मैदान !!
टुटा है यहाँ लाखोँ ही गदा
रुके है धड़कन
कभी था ये वीर विहार प्रागंण
भ्रमते है वहीँ आज श्वान शिवागण ।
शुभ शैल सम विशाल सौध होता था
,सीर उठाए कभी गगन को छुँता था
गम्भीर गौरवमय है उसका इतिहास
सुनाता था वो शत्रृ को महिमा थमजाता था तब उसका स्वास
आहा आज ये धरा को देख श्रीहीन
विदारीत हो जाते ये मेरे कोमल हृदय
था यहाँ कभी शस्त्रागार अनेकानेक
ये अब बना है दुर्वादल
का मैदान
कहाँ गये वो कमाण अशनी शब्द
सुन शत्रृ जिसे हो जाते थे
स्तब्ध
वो वीरोँ को जोश दिलानेवाले वाजेगाजे कहाँ है
न दिख रही उद्यम ही
जाति के लिये हमे कहीँ
हे काल !
तुममे एक दिन सभी समाजाते
कहीँ इसलिए उत्कल आज दीनहीन तो नहीँ !
हे काल !
तुम्हारी अटल आदेशसे
ये कैसा दूर्गति उत्कल देश का
हे सती स्रोतस्वती चित्रोत्पला [mahanadi]
तेरे तटमे वसा उत्कल था
सुजला सुफला
पिई ते थे हम तेरा सुधा सम पय [जल]
बढ़ते थे तेरे ही तटमे
वीर शूरचय !
कैसे देखलिया तुने अपने ही पुत्रोँ का निधन ?
देखी और तुझमे अभी भी शेष है जीवन ?
बारबाटी जब हुआ श्रीहीन
कराल कल्होले किए घोर नाद
रिपुकूल हृदयमेँ आतकं प्रमाद
क्युँ न जन्मा तुझसे हे जननी !
थम कैसे गया तेरा वो धमनी ।
धरकर प्रलय भीम रणरुप
शत्रुओँ को करती जग से निःशेष
हाँ शायद तब ऐसा कुछ होता
बारबाटी तेरे जलमे छिपजाता !
उस युगमे स्तम्भित हुए तेरी गति
भला तु कैसे तोड़पाती समय नियति !
महावली धन्य धन्य तुम काल ।
हे कौन तोड़ेगा तुम्हारे तीक्ष्ण करवाल !
था यदि कुछ उत्कल का दोष
दोष अनुमतमे किए हो दोष
हुआ है शास्ति कषण अनेक
न करो हमपर तुम और अत्याचार।
अबसे करुणा तुमसे चाहते है
नव युगमे हो उत्कल का हीत ।
उत्कल तनये दो नव बल
उत्कल पादपे भरो नव फल
उत्कल सरिते पवित्र जीवन
उत्कल कानने स्वर्गीय सुमन
उत्कल आकाशे नव यशः रवि
उत्कल प्रकृति ले लेँ नव छवि
[
पण्डित उत्कलमणी गोपबंधु दास के ओड़िआ कविता Baarobaati का हिन्दी अनुवाद ]

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

कथा भक्त सालवेग कि.......

1500 A.C तक मुस्लिम पुरे भारत मेँ फैल गये थे ।
हिन्दु कन्या ओँ को जबरन उठा लेते और सादी करते ।
ऐसे ही एक ब्राम्हण कन्या के साथ हुआ ।

पर उसने अपने धर्म से आस्ता वनाये रखा ।

उसका बेटा मुस्लीम सेनापती बन गया ।
एक दिन वो युध्ध मेँ बुरी तरह घायल हुआ ।
बिमार पुत्र को उस मा ने इतना कहा पुत्र ईस भयानक आपदा से अब तुम्हे कृष्णही बचा सकते है । उनके सरण मेँ जा । वो तुम्हे इस दुख से मुक्त करेगेँ । मा के वात को मानतेहुए उसने पुरी रात कृष्ण नाम जाप किया । सुबह वो क्या देखता है उसके सारेघाऊ भर चुके है अब वो बिलकुल स्वस्थ है । तब उसके माँ ने उसे कहा की वो जगन्नाथ पुरी जा कर भगवान के दर्शन करेँ । वो जगन्नाथपुरी गया । और वाहाँ वो भगवान भक्ति मेँ ऐसा डुबा की फिर कभी लौट ना सका । वो और कोइ नहीँ भक्त सालवेग है ।
वो उडिशा के रसखान है ।

उनके लिखीँ भजन इतने भावमय है की आप खुद को भक्ति रस मेँ डुबा पायेगेँ ।

उनके समाधि जगन्नाथ पुरी मेँ कभी पुरी जायेँ तो जरुर इस भक्त की दर्शन करेँ ।।।।।।

ॐ जय जगन्नाथ ।।।।।।

गजपति जिला........

अंग्रेजोँ ने 1767-68 मे दक्षिण ओड़िशा
के पारलाखेमुण्डि

(बर्तमान के गंजाम गजपति जिल्ला )

राज्य पर हमला करदिया
हमले के जवाब मे स्थानीय राजा
# जगन्नाथ_नारायण_देव तथा उनके अधिनस्त जमिदार तथा # विशोइ # दोरा
# दोरत्नम् सर्द्दारोँ ने अंग्रेजोँ का प्रतिरोध किया ।

परंतु पारलाखेमुण्डि राजा
1768 मे अंग्रेज # कर्णेल_पिच् के हातोँ
# जेलमुर मे परास्त हुए ।

उन्होने अंग्रेजोँ के खिलाफ
कटक के तत्कालिन # मराठा सरकार से सहायता माँगा था
लेकिन मराठीओ ने सामरिक सहायता देने से साफ मना करदिया था 
च्युँकि उन्हे युद्ध न करने के लिये अंग्रेजोँ से तगड़ा रकम् मिले थे ।

युद्ध मे हारने के बाद अंग्रेज राजा जगन्नाथ नारायण को मारनेवाले थे के
तभी उनके कुछ आदवासी विशोइ सर्द्दारोँ ने उन्हे सकुशल बचालिया....

अब राजा और उनके समर्थक अनुचर वागी बनेँ
1768 से 1770 तक राजा जगन्नाथ नारायण ने
अंग्रेजोँ को उनके पारलाखेमुण्डि राज्य मे खजाना वसुलने नहीँ दिया

इससे व्रिटिश इष्ट इंडिया के आला अधिकारी वेहद खफ़ा हो गये और विद्रोह कुचलने के लिये अपने सबसे ताकतवर रेजिमेँट भेजदिया था
राजा जगन्नाथ नारायण देव
मरते दमतक अंग्रेजोँ से लढ़ते रहे
और अंततः वीरगति को प्राप्त हुए ।

~~~उनके मृत्यु पश्चात
अंग्रेजोँ ने राजपुत्र
# गजपति_देव को पारलाखेमुण्डी का नूतनराजा के रुपमे स्वीकृति दिया !

हालाँकि गजपति देव स्वयं को
स्वतंत्र समझते थे
परंतु अंग्रेजो ने जब उनके राजकार्य मे अपना हस्तक्षेप किया
दोनो पक्षोँ मे संबन्ध तिक्त हुए ।

1773 मे जगन्नाथ नारायण देव के पुत्र गजपति देव ने अंग्रेजोँ के खिलाफ अपने समर्थकोँ के साथ मिलकर विद्रोह किया
था परंतु हारकर अंग्रेजोँ के हातोँ 1774 मे वंदी बने ।

गजपति देव को अंग्रेजोँ ने विशाखापट्टनम् मे वंदी बनाए
रखा ।

अगले 6 वर्षोँ मे
यानी 1774 से 1780 तक
समुचे दक्षिण ओड़िशा क्षेत्रमे
विशोइ और दोरा आदिवासी संप्रदाय के सर्द्दारोँ ने अंग्रेजोँ का
निन्द हराम करदिया था
अंततः 1780 मे अंग्रेजोँ को मजबुरन गजपति देव को कारागार से मुक्त करना पड़ा था
और इसतरह से गजपतिदेव को पुनः पारलाखेमुण्डि की राजगदी हासिल हुई थी ।

हालाकिँ अंग्रेजोँ के खिलाफ
आदवासीओँ ने विद्रोह जारी रखा
1799 मे अंग्रेजोँ ने एक आदिवासी नेता को मारदिया
जिससे समुचे क्षेत्र मे विद्रोह हुए ।

राजा गजपतिदेव ने भी विद्रोहीओँ का साथ दिया
जिससे अंग्रेजोँ ने गजपति देव और उनके पुत्रोँ को # मुसलिपट्टनम् मे पुनः वंदी बना दिया था !

1800 से 1803 तक पारलाखेमुण्डि मे अंग्रेजोँ ने इतना खुन वाहाए कि मिट्टी बंजर हो गयी
और
लगातार तिन वर्षोँतक आए अकाल से स्थानीय प्रजा देश छोड़ जाती रही
और उधर राजपरिवार निश्वः हो गया.....

इसतरह से एक लम्बी उतारचढ़ाव वाले नाटकीय घटनाक्रम से गुजरते हुए
अंग्रेज
पारलाखेमुण्डि का विद्रोह दमन
कर पाए थे ।

आगे चलकर
1830 मे इस क्षेत्रमे पुनः विद्रोह हुए
इसबार विद्रोहीओँ के शिकार बने कंपानी मेनेजर जमिदार पद्मनाभ देव !

पद्मनाभ देव अंग्रेजोँ के हातोँ बिकचुका था
उसने इस क्षेत्र के प्रजाओँ पर वर्षोँ अत्याचार किया

पर वो कहते है न

एक दिन पाप का घड़ा भर ही जाता है

1830 मे विद्रोहीओँ ने जमिदार के घर व कचेरी को आग के हवाले करदिया

1832 तक विद्रोही अंग्रेजोँ को मुँहतोड़ जवाब देते रहे

उसी साल मद्रास सरकार द्वारा जर्ज एडवार्ड रसेल को
विद्रोह दमन के लिये भेजागया !

Edward Russel ने अपने सेना को अर्डर दे रखा था
जहाँ भी हतियारधारी योद्धा दिखे जान से मार दो !

कोई दया नहीँ कोई क्षमा नहीँ ।

पहले पहल वो नाकाम् रहा
और तब उसने अपना गुस्सा आमजनता पर उतारा....

हजारोँ लोग कत्लेआम् हुए
लाखोँ वेघर हुए
इससे कुछ एक विशोइ दोरा सर्द्दारोँ ने आत्म समर्पण करदिया व ज्यादातर विद्रोही उत्तरओड़िशा चलेगए !!

अंग्रेजोँ को लगा उन्होने विद्रोह दमन करलिया
अनगिनत लाशोँ के एवज् पर ही सही ।

1856-57 मे सिपाही विद्रोह के समर्थनमे यहाँ पुनः विद्रोह हुए

इस विद्रोह के कर्णधार रहे राधाकृष्ण दण्डसेना
विद्रोहीओँ ने अंग्रेजोँ को सहायता करनेवाले
देशद्रोही जातिद्रोहीओँ के घर जलादिए और लुटपाट मचाया ।

तब इस विद्रोह को दमन करने के लिये Captain wilson ने शवरोँ के परिवारोँ को निशाना बनाया

अनेकानेक शवर गाँव जलादिए गये
अपने ही लोगोँ पर हो रहे
बलात्कार हत्या और अत्याचार का विभत्स रुप
देख विद्रोह और भड़का
इसबार विद्रोहीओँ ने अंग्रेजोँ का सिधा मुकावला किया
लेकिन हारगये ।

राधाकृष्ण दण्डसेना और उनके कुछ विद्रोही साथी को अंग्रेजोँ ने फाँसी पर चढ़ा दिआ था .....

च्युँकि जगन्नाथ नारायण देव के पुत्र गजपति देव ने अंग्रेजोँ के खिलाफ लम्बी लढ़ाई लढ़ी थी
अविभक्त गंजाम जिल्ला से अलग होने पर इस पारलाखेमुण्डि क्षेत्र अंतर्गत
भूमिखंड का नाम गजपति रखा गया......