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शनिवार, 13 अगस्त 2016

जागो बन्धनहरा

मूल रचना - कवि अनन्त पट्टनायक
[1912-1987]

नवीनयुग के तुम युवक जागो रे
जागो बन्धनहरा ,
वक्ष रक्त से लोखोँ जीवनोँमे
जलाओ आलोकधारा !! 0

तोड़ दो बन्धन सारे
रोधन करो बंद
लुप्त हो ये जाति उपजाति
खण्डित शत वतन !!

महामानवोँ के शंख ध्वनी से शमन हो दुःख ज्वाला
जागो बन्धनहरा !! 1

मृत्यु के द्वार करो चरण अर्पण
गाओरे अमर गान,
पोछ दो आज
मानव माथा से
संचित अपमान
लांघ बनानी शैल सागर
पोषणकरो तिमिर कारा !! 2


मरु पथे पथे निर्झर गढ़ो
यात्रा करो हे करो
स्पन्दन भर करोड़ोँ हृदय मे
प्रदीप उच्चमे धरो
शंकित हो कंपित प्राणे
चन्द्र तपन तारा !! 3

संधानी !
तुम्हारे संधान पथे
होगेँ काँटे उठाए शिर
सम्मुख तुम्हारे कोहरा रचेगेँ
मोह ममता के नीर (जल) !
भिन्न कर वह तन्द्रा स्पर्श
हसाओ भुवन सारा !! ।4।

विदिर्ण कर दो भूतकाल का जीर्ण जीवन
जागो रे भविष्यकाल !
चूर्ण करे विजय रथ तुम्हारे
पीड़ाओँ के उँचे पर्वत !

टुटपड़े आज बेड़ीआँ सारे
बनाओ विजय माला
जागो बन्धनहरा !!

#बन्धनहरा = #बन्धनमुक्त

***
कवि अनन्त पट्टनायक जी
अपने युवाकालमे जब
इस कविता को Odia मे लिखा था
उनदिनोँ छोटे छोटे देशोँ मे बँटा भारत पराधीन था ।
कवि अनन्त पट्टनायक जी का जन्म खोर्दा जिला चणाहाट गाँव मे 1912 साल मे हुआ था !

उन्हे उनके #अवान्तर कविता पुस्तक के लिए केन्द्र साहित्य एकादमी पुरस्कार मिला है ।
उनकी प्रमुख रचनाओँ मे रक्तशिखा ,छाई र छिटा,अलोड़ालोड़ा ,अवान्तर तथा किँचित आदि पाठकोँ मे सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए !

जागो बन्धनहरा फिलहाल
Odisha के दशवी मातृभाषा साहित्य किताव मे स्थानीत हुआ है
आशा है आपको इस कविता कि अनुवादित अंश पसंद आवेगा

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