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एक और षडयन्त्र

अनंत_वासुदेव_मंदिर भूवनेश्वर कि सर्वप्रथम पुरातन विष्णु मंदिर है ।पुरातन काल मे भूवनेश्वर को शैव क्षेत्र के रुप मे जानाजाता था यहाँ कई प...

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

चोडगंगदेव और जनसृतिआँ.....भाग 1

#कलिगंराज
अनन्तबर्मा चोडगंग देव ने
1078 से 1147....
सत्तर साल तक आगंगा गोदावरी पर राज किया था ......
उनके पिता
देवेन्द्र बर्मा राजराजदेव

दक्षिणी #कलिगं राज्य के राजा थे जो केशरी राजाओं के उत्कल के पश्चिमी भाग मे था ।

उनकी माता #चोलराज #कुलतुगं राजेन्द्र कि पुत्री तथा पिता #पूर्वगंगवंशी होने के कारण उनका नाम #चोलगंग रखागया था ये नाम आज बदलकर #चोडगंग हुआ है ....... मात्र 2 (1078) वर्ष कि आयु में उनका राज्याभिषेक #कलिगंनगर आधुनिक #मूखलिगंम् सहर में संपन्न हुआ ......

1135 तक यही #कलिगंनगर उनके साम्राज्य कि राजधानी बनी रही ओर उसी साल उन्होने अपना राजधानी #कटकनगर को बनाया ......तबसे 1950 तक #कटक को राजधानी का दर्जा मिलता रहा........

चोडगंग के बारे मे अनेकों जनसृति गढे गये.....

पुरी #श्रीक्षेत्र मे प्रचलित #मादलापांजी
ग्रन्थ मे उनके बारे मे जो कहगया है वह उनकी सम्मान हानी करता है...

कुछ ऐतिहासिकों ने मादला पांजी को 15वीं सदी परवर्त्ती ग्रन्थ माना हे .....

मादलापांजी मे चोडगंग को
#चोरगंग कहागया है
ये भी कि उनकी माता
एक #दक्षिणभारतीय विधवा
व (जारज) पिता #गोकर्ण थे.....

बालक चोडगंग एक दिन अपने संगी साथीओं के साथ #राजामन्त्री खेल रहे थे कि #केशरीराजवंश शासित #उत्कल राज्य सेनापति #वासुदेव_वाहिनीपति ने उन्हें देखा वो चोडगंग से प्रभावित हुए ।
#उत्कल सेनापति उनके गुरू हुए उन्होने चोडगंग को समर्थ योद्धा बनाया ।
इसबीच किसी बातपर #केशरी राजा
से सेनापति बासुदेव वाहिनीपति का झगडा हो गया .....

वासुदेवजी का दुःख शिष्य चोडगंग से देखा न गया ....उसने तय कर लिया ....उत्कलराज को दंड दैके रहेगा.....

वो यही सोचते हुए एक चुडैल #नितेई #धोवणी से मिला और उससे चोडगंग को चमत्कारी शक्ति प्राप्त हुए ।
इससे वह शक्तिशाली अपराजय उत्कलराज को परास्त करके स्वयं
उत्कल #राजसिंहासन आरोहण पूर्वक शासन करनेलगा ।
यथा संभव
यह जनसृति #सूर्यवंशी राजाओं के राजत्वकाल(15वीं सदी) मे गढागया होगा.....

चोडगंग अनन्तवर्मन के बारे में 2 जनसृति और है....

उनके बारे में तेलुगु जनसृति
अगले पोस्ट में.......

मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

दळबेहेरा सामन्त माधवचन्द्र राउतराय -1827 तापंगगड संग्राम्

भारत मे ऐसे हजारों स्वतंत्रता सेनानी हुए है जिनके बारे मे  केवल स्थानीय लोग जानते हे ।
ऐसे ही एक जननायक थे
दलवेहेरा सामन्त माधवचन्द्र राउतराय.........
1827 में अंग्रेजोंने खोर्द्दाराज्य के तापंगगड़ पर हमला करदिया .....
मगर
#पाइक योद्धाओं को इस हमले कि पहले से ही खबर हो गयी थी ।
मळिपडा,नारणगड,रामचण्डिगड, रथिपुरगड,छत्रमागड व गडसानपुट आदि क्षेत्रों के योद्धाओं ने मिलकर उनका सामना किया ।
तापंग दलवेहेरा के साथ भागीरथी दळेइ,प्रताप सिंह,बैरीगंजन,गोबर्धन दळेइ व रणसिंह योद्धा आगे रहकर पाइकों का प्रतिनिधित्व कररहे थे ।
शुरुआती लढाई मे अंग्रेज हारने लगे लेकिन जैसेतैसे उन्हे कांजिआगड में छाँवनी लगाने मे सफलता मिलगयी .....
देवी हस्तेश्वरी कि पूजा के बाद पाइक योद्धाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेडदिया जो 7 दिनों तक चला । युद्ध के
चौथे दिन भयानक युद्ध हुआ....
दलवेहेरा माधर चन्द्र के नेतृत्व मे पाइक ज्यादा आक्रामक हो उठे इससे हजारों अंग्रेज सैनिक मरे ओर उनके कैप्टन धारकोर्ट वहाँ से जान बचाकर भाग निकले ।

धाराक्रोट ने अब दिमाग का खेल खेला ......
अंग्रेज रस्ते मे कुछ सोने के सिक्के डाल दिए ओर छिपगये....
अंग्रेजों का पिछा करता हुआ
दधीमाछगाडिआ गाँव का एक पाइक सैनिक मधुसुदन पट्टनायक ने रास्तों मे सोना गिरा देखा और वो सब उठाने लगा .....
अंग्रेज जानगये वो लोभी है यानी काम का बंदा !
उसे और लोभ दियागया
और उसने सोने के लालच मे दुशमनों से हाथ मिलालिया ।

अब अंग्रेज भारी पडने लगे लेकिन वो तब भी किसी भी तरह जीत नहीं पा रहे थे .....

सातवें दिन देशद्रोही मधुसुदन पट्टनायक ने अंग्रेजों को हातीआ पर्वत के नीचे रखे पाइकों का अश्त्रागार दिखादिया और अंग्रेजों ने उसमें आग लगा दिया .....
अब पाइक वीरों के पास गोरिला युद्ध के सिबा कोइ रस्ता न था ।
वो सब छिपकर अंग्रेजों के खिलाफ 2 वर्षों तक लढते रहे ।
1829 में एक सुबह जंगल में एक केवट परिवार कि बृद्धा रोती हुई जा रही थी .....भेष बदले हुए दलवेहेरा माधवचन्द्र ने जब उससे रोने का कारण पुछा उसने अपने गरीबी व कुटुम्बजनों का निराहार
होना आदि प्रसंग कह सुनाया .और कहा कि वो जंगल मे मरने आई है च्युंकि वो अपने बच्चों को खाना तक दे नहीं पा रही....

दलवेहेरा माधवचन्द्र ने उन्हे अंग्रेजों से मिलादेने को कहा .....
और ये भी कि उसे बहुत सारे पैसा मिलेगा .....
अंग्रेज थाने मे जब दलवेहेरा ने अपना परिचय दिया अंग्रेज अफसर दंग रहगये .....वह औरत जो कुछ घंटो पूर्व अन्नदाने के लिए रो रही थी खुदको कोशने लगी कि उसने कितना बडा गलती करदिया .......
दलवेहेरा
माधवचन्द्र राउतरात के बारे मे एक अंग्रेज अफसर ने अपने अटोवायोग्राफी मे लिखा है

“Dalabehera Madhaba Chandra was not only a fighter for freedom, but also a great friend of the poor. No one hadever been turned away from his door empty handed. He wasloved and respected every where for his greatness of heart.”

(दलवेहेरा एक उपाधी है जो पाइक सर्दारों को मिलाकरता था ....)

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

भारत से बौद्ध धर्म कैसे लुप्त हुआ...

दशवीं सदीमे समुचे भारत का चक्कर लगाते हुए श्री शंकराचार्य श्रीक्षेत्र पुरुषोत्तम पहँचते है ।

उन दिनों आज जितना बडा मन्दिर नहीं था आज जहाँ भोगमंडप है वहीं एक बडा मण्डप जरूर हुआ करता था !

शंकरचार्य जी ने देखा हर पंथ सम्प्रदाय के लोग इस मंडप के पास आकरके इक्कठे हो रहे है ओर फिर जगन्नाथ को अपने हिसाब से पूज रहे है .....

कोई शैव बेलपत्र चढा रहा है......तो कोई शाक्त जवा पूष्प .....

उनदिनों पुरी अन्चल केशरी वंश अधीनस्त आया करता था
सो शंकराचार्य
#Jajpur जाजपुर में केशरी राजा से मिले ......

शंकराचार्य जी ने राजा से कहा

एक ईश्वर सो एक पूजाविधी होना चाहिए

केशरी राजा कुछ चिन्तित होते हुए मुनी से आग्रह करने लगे

हे देव ! कृपा करके आप ही कोई मार्ग बतावें मैं तो निरुपाय हुँ......

शंकराचार्य जी ने सभी सम्प्रदायों के बीच उसी भोगमंडप के पास एक तर्कसभा के आयोजन का सुझाव राजा को दिया ।

अपने देश के लोग तर्क वितर्क के मामले में एलियन के बिरादरी को भी हरासकने का दमखम रखते है
...।

सो सब राजी हो गये

एक एक करके सब सम्प्रदाय के अग्रज विद्वान हारकर बाहर हो रहे थे.....जैन,वैष्णव,सौर,गाणपत्य आदि आदि........

अन्त मे सिर्फ बौध व शाक्त धर्म के अनुयायी ही अपराजय रहे गये......

कोई किसी के हरा नहीं पा रहे थे न स्वयं हार मान रहे थे....।

वौधों के पास ऐतिहासिक तथ्य था....
वो जगन्नाथ को भगवन बुद्ध तथा उनके मध्य स्थित ब्रह्म को बुद्धदन्त बतारहे थे....

उधर शाक्तधर्म अनुयायीओं ने श्रीजगन्नाथ को
कामाक्षा काली(आसाम),सुभद्रा जी को भूवनेश्वरी(दुर्गा) तथा बलभद्रजी को मंगलादेवी(उत्कलीय) प्रमाण करदिया.....

दोनों ही पक्ष का तर्क मजबुत था......

केशरी राजा वौध थे रानी शाक्त धर्म प्रेमी
दोनों मे कौन श्रेष्ठ है जाननेे हेतु कौतुहल ओर बढा......

तब श्रेष्ठता जानने को
एक मटके में एक काले नाग को भरवाकै दोनों पक्षों से पुछागया बताओ इस बंद मटके में क्या है .....

बौद्ध सन्यासीओं ने कालानाग बताया
शाक्तधर्म तान्त्रिकों ने उस सांप को सबके अगोचर मे तन्त्र से भस्म करके उस मटके मे भस्म है कहा .....

इससे
शाक्तधर्मावल्भीओं का विजय
हो गया और बौद्धों का हार......

धीरे धीरे बौद्ध भारत में जगह जगह हारते चले गये और अन्ततः भारत से बौद्धधर्म लुप्त हो गया......

बुधवार, 9 नवंबर 2016

अंग्रेजों का 1811 मुद्रानीति - ऐसे हुए ओडिआ एक झटके मे गरीब

1810 तक अंग्रेज पुरे भारत पर कब्जा कर चुके थे ।
अगले साल यानी 1811 को वो लोग नये मुद्रानीति लेकर आ गये ।
उन दिनों पूर्वभारत मे लेनदेन व्यापार कि करेंसीओं मे #कौडी आम लोगों के पास बहुतायत मे हुआ करता था ।
Odisha के लोग अछे खासे व्यापारी हुआ करते थे
वो कौडीओं के बल पर स्वयं को अमीर समझने लगे थे ।
अंग्रेजों ने उनको एक दिन मे नये कानुन बनाके कंगाल बना दिया ।
नये कानुन के तहत केवल सोना सिलवर के
रुपयों को मान्य बनाया गया
। इससे कौडीओं के मूल्य सिलवर के मुकावले काफी घटगये ।
लोग कौडी के बदले रुपा के सिक्के संग्रह करने के चक्कर मे
मुद्रा विनीमयकारीओं के हातों शोषण के शिकार हुए ।

अंग्रेजों ने कौडीओं का मूल्य तय किया था 1280•4 यानी 5120 कौडी = 64 आनै मे एक रुपा या सिलवर मुद्रा

लेकिन वाजार मे वभाव इसके दुगने तिगने करदिएगये थे ।
यानी 20000 से 30000 कौडीओं के बदले एक रुपा मुद्रा

फिर एक ओर सूर्यास्थ कानुन के बल पर अंग्रेजों ने ओडिआ जमिदारों से जमिदारी छीन कर जानकार अत्याचारी बंगाली जमीदारों को दे दिए

ओर उन नये जमिदारों ने अंग्रजी किनुनी क्षमता के बल पर लोगों का शोषण करना शुरुकरदिया........

वर्षों संप्पन रहा एक क्षेत्र मात्र मुद्रानीति के बदल जाने से देश का सबसे गरीब भूभाग बनगया था

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

जामशेदपुरे

जामशेदपुर आज एक Industrial city है
लेकिन
पहले ऐसा न था ।
काळिमाटि ,साक्नी जैसे कुछ उडिया आदिवासीओँ का गाँव यहाँ हुआ करते थे यहाँ !

टाटा कंपनी ने उन लोगोँ की पैतृक संपत्ति को छिनकर वहाँ
करखाने बनाए और तबसे इस जगह का नाम जामशेद टाटा के
नामसे जमशेदपुर हुआ है ।

इस विषय मेँ एक उडिया गीतिकविता
देवनागरी लिपान्तरण के साथ

    -जामसेदपुरे-

एहि ये नगरी आजि मुँ देखे नय़ने चाहिँ
धन दउलते डउल सरि एहार काहिँ ?

सउधु सउध गगने शिर उठिछि टेकि,
मरतु रखिबा पाहाच बान्धि सरगे निकि !

सुख सउभाग्य़े निरते हसि रहन्ति जने ।
मर दुःख शोक नाहान्ति सते देखि नय़ने ।

कळे निति धन संपद शिरी गढ़न्ति करे
लुहारे करन्ति सुना से कर परशे खरे ।

कि अछि अपूर्ब मर्त्त्य़े या धरि नाहान्ति बसि ?
मनासन्ति सते भूंजिबे स्वर्ग संपद हसि ।

एहि ये सम्भार नय़ने दिने देखिबा पाइँ
निखिळ भूबनु सरागे जने आसन्ति धाइँ ।

माडि ये याअन्ति चरणे शिळा
सरणी परे,
अजाणिते केते दरिद्र आशा बिलुप्त भाले ।

कळ घन मन्द्र गर्जने कर्णे शुणन्ति मिशा
दुःखिहृद बृथा गुपत धीर नीरब भाषा ।

केते आहा पल्ली कृषके चित्त उल्लास ताने .
हळ बाहि एहि प्रान्तर भरि न थिबे दिने ।

केते त कृषक घरणी भोके गिरस्त लागि
भात घेनि बिले थिबटि आसि सरमे भागी ।

प्राणपति पेटु बळिले . लता उढ़ाळे बसि ,
निज पेट अळ्पे मउने भरिथिबटि हसि ।

फेरन्ते कुटीरे चरण लागिथिब ता भारि ,
गिरस्त संगरे नथिले ,किबा कुटीर शिरी ?

सेही शिरीमान भागिँ त गढ़ा ए पुरी आजि ,
सेहि पल्ली सुखशरधा एथि रहिछि भाजि

खोळिले मृत्तिका पाइब हळ लंगळ गार ,
दुःखी हृदे देखि पारिब धन पेषण भार ।

गछ लता मूळ निकाशे आजि नथिब शुखि ,
दिने यहिँ काटि फसल चषा थिबटि रखि ।

केदार कनक सम्भारे भरिथिब
ता मन
तोषे बरषटि खाइ ,से यापिपारिब दिन ।

आजि एबे याइ केबण दूर दुर्गम पथे ,
धरि स्तिरी पुत्र अन्दुटि थिब निशून्य़ पेटे ।

सुमरु थिब ता अतीत भब संपद कथा
शमन जीबन्त पीडने नोइँ दइने
मथा ।

निदारुण एहि छबि के येबे देखिब लोड़ि ,
ए कुबेर पुरे किपाइँ
बारे आसिब बरि ?

कुलिबार याइ आसे त मरु पदा कानने ,
अनशने यहिँ उदर जाळि भ्रमन्ति जने ।

रह , हे नगरनिबासि ,
अर्द्ध नृपतिराजि;
न फेरिबि दिने ए पुरे ,तेजि याउछि आजि ।

रंकनाथ मंदिर

श्रीरंकनाथ मंदिर संभवतः ऐसा इकलौता मंदिर है

जहाँ श्रीजगन्नाथ बलभद्र सुभद्रा
पूर्णागं पूजे जाते है ।

खोर्द्धा से नयागड जानेवाले रस्ते  मे आता है
एक गाँव जागुळाइपाटणा
इसी गाँव मेँ है यह ऐतिहासिक देवालय ।

श्रीरंकनाथ
मंदिर प्रतिष्ठा को लेकर
एक जनसृति प्रचलन
है

पुरी राजा तृतीय नरसिँह देव को
19वीँ सदी मेँ अंग्रेजोँ ने
हत्या के आरोप मे कालापानी भेजदिया था ।

वो वहाँ से समंदर मे तैर कर भागने मेँ सफल हो गये

राजा तैर कर
पूर्वभारत मे पहँचे
और जब अंग्रेजोँ को राजा के पुरी मे होना का पताचला
वे फिर बंदी बनाए गये

लेकिन
इसबार उन्हे कटक मेँ कारागार मेँ कैद करदिया गया था ।

एक दिन रात को एक अनजान व्यक्ति ने कारागार से राजाको मुक्त कराया
ओर अपने पिछे चलने को इशारा करते हुए आगे चलने लगा ।

चलते चलते रात से कब सुबह हुआ
राजा को कोई सुद न था
वे बस चलते जा रहे थे
यन्त्रवत् !

जहाँ आज मंदिर है वहाँ उनदिनोँ घने जंगल हुआ करते थे

राजा को यहाँ पहँचने पर संत रघुवीर दास का कुटिआ मिला ।

वे उनके शिष्य बनगये
व तबसे दयानीधि दास कहलाए ।

परवर्त्ती काल मे दयानिधि दास के परम शिष्य खण्डपडा राजा नरेन्द्र ने यहाँ तालाव व मंदिर निर्माण करवाया था

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

कैसे बना सम्बलपुर जंगल से जनपद

वर्तमान बलांगिर जिल्ला
एक समय
पाटणा गड़जात के नामसे प्रशिद्ध हुआ करता
था ।

बलांगिर-पाटणा मे 15वीँ सदी मेँ नृसिँहदेव के नामसे एक राजा का राज था ।

नृसिँहदेव कि रानी भयंकर वर्षा रजनी के समय आसन्न प्रसवा हुई !

राजनवर तथा धाई माँ के गाँव के बीच एक स्रोतस्वती नदी हुआ करती थीँ ।

वह नदी पार करना
ओर उस पार जाकर
धाई को लाना
ये मुस्किल को हल करने को
राजा दिमाग दौडा रहे थे
कि
उनको
बिना बताए
उनके छोटे भाई बलराम देव
भीषण परिस्थितिओँ मे
नदी पार कर के गाँव पहँचे
और
धाईमाँ को अपने पीठ पर बिठाए
नदी पार कर लाए ।

यथा समय धाई ने अपना कार्य संपादन किया
जब नृसिँहदेव उनके अनुज भ्राता का पराक्रम पताचला
वे अत्यन्त खुस हुए

अनुज बलरामदेव को बर्तमान संबलपुर क्षेत्र
भेँट दे दिया था ।

हाँलाकि संबलपुर तब
खांडवप्रस्थ के तरह जंगल ही था
फिर भी बड़े भाई से मिले स्नेह भेँट को ग्रहण कर
वो जब विदाय लेने माता के पास पहँचे
राजमाता ने अपने कनिष्ठ पुत्र से कहा
"बेटा
तु आजसे
# अंगनदीके उत्तरभाग का अधिपति है
दक्षिणी राज्य पर कदापी लोभ न करना
न अपने बड़े भ्राता से कलह"
इतिहास गवाह है
संबलपुर मे उनके आनेवाले पिढ़ीओँ ने कभी बलांगीर पर
हमला नहीँ किया
संबलपुर के लोगोँ कि वीरता
किसी से अविदित नहीँ है
1858 तक जब सारा भारत अंग्रेजोँ के हातोँ मे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुपसे आ ही गई थी
तब भी संबलपुर को अंग्रेज जीत नहीँ पाए थे ।

10साल तक कड़े संघर्ष के बाद
सुरेन्द्रसाए जैसे वीरोँ के बलिदान के बाद जाकर ये अंग्रेजोँ के हाथ आया ।

बुधवार, 28 सितंबर 2016

ओड़िशा मे रामायण

भारत मे मूल बाल्मिकी रामायण से प्रेरित
तिन प्रकार के
रामायण ग्रंथ पाएजाते है
I-औदीच्य
II-दाक्षिणात्य
III-गौडीय
तिनोँ मे सर्ग संख्या तथा पाठ मे भिन्नताएँ देखा जा सकता है ।
उत्कलीय कविओँ ने भी रामायण को अपने मातृभाषा मेँ
भावानुवाद करने कि कोशिश कि है ।
1.
उत्कलीय कवि विश्वनाथ खुंटिया
ने
बाल्मिकी रामायणको Odia मे लिखा
लोगोँ ने उनके द्वारा लिखेगये
रमायण को विचित्र रामायण
या विशिरामायण नाम दिया ।
Archive . com मेँ आपको विचित्ररामायण का हिँदी लिपान्तरण पुस्तक प्राप्त होगेँ ।
2.
ओड़िआ कवि हरिहर ने पद्याकार # सुचित्र_रामायणलिखा था !
3. जगन्नाथ दास के शिष्य पुरीनिवासी बलराम दास ने 16वीँ सदी मे जगमोहन रामायण लिखा ।
4.19वीँ सदीके प्रारम्भिक काल मे गंजाम जिले के कवि कृष्ण चरण पट्टनायक ने मूल रामायण का पद्यनुवाद किया था
यह रामायण कृष्ढ रामायण कहलाया ।
5.केशव पट्टनायक नामक अन्य एक कवि ने भी बाल्मिकी
रामायण का भावानुवाद किया
यह ग्रंथ को लोग केशव रामायण कहने लगे ।
आधुनिक काल मे स्वर्गीय पण्डित कपिलेश्वर विद्याभूषण तथा फकीरमोहन सेनापति
तथा भागवत प्रसाद दान
आदि कवि लेखकोँ ने पुनः पुनः मूल
रामायण का ओड़िआ पद्य भावाअनुवाद
किया था ।
इसके अलवा प्राचीन व नवीन युग के कविओँ ने रामायण से सार संग्रह पूर्वक कई काव्य ग्रंथ लिखे है ।
जैसे
प्राचीन कवि चिन्तामणि व मागुणि पट्टनायक का
दो अलग अलग रामचंद्र विहार ,
धनंजय भंज का रघुनाथ विलास,
कविसम्राट उपेन्द्रं भंज
का "ब" आद्य पद ममन्वित
"वैदहीशविलास"
इसमे हर पद ब से प्रारम्भ होता है ।
पीताम्बर दास ने अपने नृसिँह पुराण मे रामायण का संक्षिप्त वर्णन किया ।
गंजाम के कवि कान्हु दाश कृत रामरसामृत ,
चिकिटि के स्वर्गीय पीताम्बर राजेन्द्र के द्वारा लिखेगये रामलीला आदि प्रसिद्ध है ।
वहीँ
आधुनिक काल के कवि मधुसुदन राव ने वालरामायण लिखा
था ।
रत्नाकर गर्गवटु ने रामायण का सार संग्रह पूर्वक संक्षिप्त रामायण लिखा ।
अरुणोदय प्रेस तथा सारस्वत प्रेस ने भी 2 अलग अलग रामायण ग्रंथ छपवाया
था ।
वलराम दास ने 16वीँ सदी मे बालरामायण लिखा,चंद्रशेखर नंद ने रामायणकथा ,नीलकंठ दाश ने भी बालकोँ के लिए
पिलाकं रामायण रचना किया ।

उत्कलीय नाट्यशास्त्रोँ मे रामकथा तथा रामायण पर आधारित कई नाटक लिखे गये है
कुछ प्रसिद्ध नाटकोँ के नाम इसप्रकार है !
1.लंकादहन-भिकारी पट्टनायक
2.राम बनवास-रामशंकर राय
3.अहल्याशापमोचन-पद्मनाभ नारायण देव
4.सीता बिबाह-कामपाळ मिश्र
5.रावण वध -हरिहर रथ
6.रामाभिषेक -हरिहर रथ
7.रामजन्म ,रामनिर्वासन-हरिहर रथ
8.सीतावनवास गीतिनाट्य-
नन्दकिशोर वल !
संस्कृत के
आध्यात्म रामायण का भी ओड़िआ अनुवाद
हुआ है ।
हलधर दास ,तेलुगुभाषी गोपाल कवि ,गंजाम के सूर्यमणी पट्टनायक आदि कविओँ ने इस ग्रंथ का ओड़िआ अनुवाद किया था ।
इनके अलावा
आदि कवि सारला दास ने
विलंका रामायण नामसे एक पद्यग्रंथ लिखा था
इसके कथानक रामायण से पूर्णतः भिन्र है ।
अतः कुछ लोग इसे निजस्व ,लिँक से हटाहुआ तथा काळ्पनिक कृति मानते है ।
यहाँ रामायण के बाद
कि कहानी बर्णना किए गये है ।
पातालस्थ विलंका
नगरी राजा सहस्रमुख रावण को
राम आक्रमण कर सीता के शक्ति से विलंकासुर को कैसे मारते है
यही इसमे बताया गया है ।
कम शब्दोँ कहे तो ये भारत का एक अकेला इकलौता नारिवादी रामायण है ।

ओड़िआभाषा का पहला उपन्यास

Odiaभाषा मेँ लिखागया पहला उपन्यासका नाम कितने ओड़िआजानते है ?
1878 मेँ रामशंकर राय ने
उपन्यास लिखने कि कोशिश कि थीँ
सौदामिनी
परंतु च्युँकि
इसका धारावाहिक प्रकाशन
उत्कळमधुप पत्रिका मेँ छपता था
पत्रिका के बंद हो जाने से
यह असंपूर्ण रहगया
पाँचवार प्रयास करके
भी
कभी पूर्णतः छप नहीँ पाया....
एक बंगाली मातापिता से
उमेश_चंद्र_ सरकार का जन्म पुरी पुरुषोत्तमधाममेँ हुआ था ।
उमेश चंद्र ने ही पहला Odia उपन्यास लिखा था पद्ममाली
odia भाषा का प्रथम पूर्ण
उपन्यास है ।
1888 से यह उपन्यास
ढ़ेँकानाल सहर से सबसे पहले प्रकाशित हुआ था ।
उपन्यास कि कथानक
नीलगिरि राज्य के राजकर्मचारीओँ द्वारा पाँचगड़ राज्य पर आक्रमण
तथा हरिहर भ्रमरवर का नीलगिरि आक्रमण
मुख्य विषयवस्तु है ।
यह उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि
20वीँ सदी के शुरवात मे
कोलकाता विश्वविद्यालय मेँ
ओड़िआ छात्रोँ के पाठ्यपुस्तक के रुप मे इसे सामिल किया गया था ।
पद्ममाली का द्वितीय संस्करण
तालचेर से 1912 मेँ
तथा
1930 मे तृतीय संस्करण लक्षीनारायण प्रेस कटक से प्रकाशित हुआ ।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

जब इंग्लैण्ड मे रेवेन्सा से मिले मधुसुदन !

Mr. reveshaw
एक अंग्रेज कर्मचारी थे
व्रिटिशराज के समय !

जब ओड़िशा उनका कर्मस्थली बना
उन्होने Odia भाषा सिखना शुरुकिया !
वे सिख भी गये

19वीँ सदी कि मध्यभागमे ODISHA मे एक भी सरकारी स्कुल न था

रेभेन्सा ने सोचा चलो एक स्कुल खोला जाय


उन्होने रेभेन्सा कलेजिएट स्कुल कि स्थापना कि
यहाँ सुभाष वोष भी पढ़चुके है ।


अच्छा रेभेन्सा ने श्रीगणेश करदिया

कुछ वर्षोँ बाद
इंलण्ड चले गये

कुछ वर्षोँ बाद
कोलकता विश्वविद्यालय के अध्यापक
आष्टन
तथा उत्कल गौरव मधुसुदन दास
इंलण्ड संस्कृति मेले मे गये हुए थे

आष्टन को पता न था
रेवेन्सा मधुबाबु को जानते है

वे उनका परिचय रेवेन्सा से कराने लगे

रेवेन्सा को आष्टन ने कहा
लिजिये मिलिए
अपने पुराने बंगाली छात्र
मि. दास से ।

ये सुनकर
मधु बाबु मुस्काए
फिर
रेवेन्सा व मधुसुदन ODIA मेँ बात करने लगे

ये दैखके आष्टन भौँचके रहगये






सोमवार, 5 सितंबर 2016

अंग्रेजोँ के नमक कानुन के खिलाफ प्रथम प्रतिवाद सभा -1888

शायद ज्यादातर भारतीयोँ को ये ज्ञात न हो !
गांधीजी के नमक सत्याग्रह आंदोलन व दाण्डियात्रा से 42 साल पहले
1888 मे नमक टैक्स के खिलाफ
सर्व प्रथम प्रतिवाद सभा
Odisha के कटक स मे आयोजित हुआ था ।

बात 1888 कि है
उस साल अंग्रेजोँ ने एक विवादास्पद कानुन बनाया
जिससे पूर्वभारत के लोग
समंदर से नमक नहीँ बना सकते थे ।
इस कानुनके तहत कोलकता से निमक माहल यानी नमक बनाने के अधिकार छिनकै मद्राज को दे दिया गया !
मद्राज मे अंग्रेजोँ ने नमक के कारखाने लगाये थे
इसलिये वे चाहते थे लोग उनका नमक इस्तेमाल करेँ ।
अब अविभक्त बालेश्वर जिला मे उनदिनोँ 90 प्रतिशत लोग नमक व्यवसाय से जुड़े हुए थे ....इस कानुन से उनका रोजी रोटी छिन गया


इस विषय पर उन्हीदिनो
कटक प्रिँटिगं प्रेस मे
मधुसुदन दास ने रामशंकर राय
को कहा तुम एक सभा का आयोजन करो

तब रामशंकर वोले

सभा कि तैयारी तो हो जाएगी
लेकिन अब ये तो आम आदमीओँ कि सभा होगी
और आप तो अंग्रेजी मे ही अबतक भाषण देते आए है
क्या यहाँ भी ?

मधुबाबु कुछ क्षणोँतक हँसते रहे

और फिर सभावाले दिन
वे ओड़िआ मे पहलीबार
जन सैलाव को संवोधित कर रहे थे...

मधु ने जैसे ही कहा
धनी असल मे गरीब होते है
और गरीब ही अमीर

तालीओँ के गड़गड़ाहट से गगन पवन प्रतिध्वनित हो गया ।

इस प्रतिवाद सभा के बारे मे डा. वि .पट्टाभि सीतारामाया
Histroy of the congress vol-i page 82
मे लिखते है
....
knowing as we do the genesis of the tax and the
recommendations made by the salt commission of 1836,we can not but feel a surprise that the grouds on which the tax was attacked in 1888 by the congress were not that it was inequitous and meant to assist british
shipping industry and british export trade ,but that it was recently enhanced.....com

शनिवार, 27 अगस्त 2016

मातृभाषा मे लिखनेवाले 3 कवि लेखक

** अतिबड़ी जगन्नाथ दास जी ने 500वर्ष पूर्व ओड़िआ भाषा मे भागवत लिखा !!

तब #Puri मेँ रह रहे संस्कृत पण्डितोँ ने इसे "तेली भागवत" कहकर उपहास किया था ।

कालान्तर मेँ यह ग्रन्थ ओड़िशा मेँ इतना लोकप्रिय हुआ कि हर गाँव मेँ पढ़ाजाने लगा ।

इसे रोजाना पढ़ने हेतु स्वतंत्र गृह "भागवत टुगीँ " बनाये गये और आज भी है  !

**गोस्वामी तुलसी दास जी ने  रामायण को अवधी भाषा मेँ लिखा ।

काशी के पड़िँतो ने तब इसका विरोध किया था और रामचरित मानस को काशी विश्वनाथ के यहाँ परिक्षण करने हेतु रखा गया ।

उपर संस्कृत ग्रन्थ निचे
रामचरित मानस रखा गया ।

सुबह

संस्कृत ग्रन्थ निचे रामचरित मानस उपर पाया गया

और उपर लिखा था सत्यम शिवम् सुन्दरम् !

**

विश्व विख्यात अंग्रेजी कवि मिलटन् ने जब "पाराड़ाइज लष्ट" लिखा था
तब युरोप मेँ लाटिन भाषा को ज्यादा तबज्जो दिया जा रहा था । 

युरोप मेँ साहित्यकारोँ ने मिलटन का तिव्र आलोचना किया !!

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[[इन महात्माओँ ने मातृभाषा मेँ लिखा था इसलिये उनका ग्रंथ इतना जनादृत हो सका]]

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शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

1901;संबलपुर भाषाआन्दोलन संक्षिप्त विवरण

1899 मे सम्बलपुर क्षेत्र मे भयानक अकाल पड़ा था !
1866 के तरह ये भी मनुष्यकृत अकाल था ।
1890 मे झारसुगुडा होते हुए
बम्बे कलकत्ता रेलवे ट्रेक निर्माण होने के बाद 1894 मे झारसुगुड़ा से सम्बलपुर तक रेल्वे ट्रेक बिछाया गये ।

जिससे यहाँ उत्पादित खाद्य शस्य लोगोँ से जोरजबरदस्त रेल से दुसरे जगहोँ मे भेजदिया ।

इससे किशानोँ के पास उगाने को न बीज मिला न सरकार ने बीज अमदानी कि ।

खाद्य रप्तानी इतने मात्रा मे बृद्धि हुए कि 3/4 साल मे
यहाँ भयंकर अकाल पड़ा जिससे
सम्बलपुर जिला के 8 लाख मे से एक अक्टोवर 1899 से 30 सेप्टेम्बर 1900 तक
62 हजार 924 लोगोँ का प्राणहानी हुए वहीँ इसके 5गुना लोग
सबकुछ खोओकर निःस्व हो गये ।

संबलपुर के स्वाभिमानी ओड़िआ
अपने मातृभाषा मे चिट्ठी लिखके
सरकार को अपना दुःख दर्द सुनाने को दफ्तरोँ मे भेजने लगे !

लेकिन हिन्दी बंगाली सरकारी कर्मचारी
या तो उन चिट्ठीओँ को फाड़देते थे
या कहीँ फैँक देते थे ।

उस समय के
जिल्ला मुख्यप्रशासन कार्यालय के क्लॉर्क श्री दाशरथी मिश्र को जब इसबारे मे पताचला
उन्होने अपने भाई श्री श्रीपति मिश्र जी के जरिये
दुसरे लोगोँ को हिन्दी बंगाली लोगोँ कि षडयन्त्र का पर्दाफास करवाया ।

एक ओर ओड़िआ सरकारी कर्मचारी

वैकुण्ठनाथ पूजारी ने 1901 मे जनगणना के वाहाने संबलपुर मे गाँव गाँव घुम कर लोगोँ को जनगणनाकरनेवाले लोगोँ को अपना भाषा ओड़िआ बताना ऐसा प्रचार किया ।

जब जिल्लापाल को यह ज्ञात हुआ उन्होने श्री पूजारी जी को जबलपुर ट्राँसफर अर्डर भेजदिया था ।

1901 मे संबलपुर के ही एक युवा वकील श्री चंद्रशेखर वेहेरा ने हिन्दीबांग्ला भाषी कर्मचारीओँ के खिलाफ मोर्चा खोलदिया ।

अब तो सम्बलपुर का बच्चा बच्चा तक
भूबनेश्वरजी के साथ आ खड़े हुए ।

उसी साल May माह मेँ श्रीमदनमोहन मिश्र जी के नेतृत्व मे
जनसैलाव ने जिल्लापाल के कार्यालय का घेराव किया
!

29 जुलाइ 1901 मे श्री व्रजमोहन पट्टनायक जी के नेतृत्व मे एक प्रतिनिधि दल
नागपुर चिफ कमिशनर
फ्रेजर साहब से मिला तथा उन्हे सम्बलपुरमे पुनः ओड़िआ भाषा प्रचलन हेतु दाविपत्र सौँपे गए ।

स्वाभिमान के लिए लढ़ाई लढ़रहे ये पाँच ओड़िआ अब
बड़लाट लर्ड कर्जन तथा मध्यप्रदेश गभर्नर Andrew frezer से मिलने 16 सेप्टेम्बर 1901 मे सिमला पहँचे ।

लेकिन वहाँ उनकी बात सुनने को कोई उच्च अधिकारी न था ।
लेकिन गवर्नर के घरोइ सचिव तथा पूर्वतन सम्बलपुर कलेक्टर
क्रम्पट साब उन्हे मिलगये
उन पाँचो ने उन्हे दाविपत्र थमाया
और सम्बलपुर लौट आए ।

सिमला मे सर्वभारतीय शिक्षानीति सेमिनार मे
बड़लाट कर्जन ने Andrew frezer से पुछा
यदि नागपुर मे मराठी भाषा को सरकारी भाषा बनाया
गया वहीँ सिर मे तेलुगु भाषा
प्रचलन मे है
तो सम्बलपुर मे ओड़िआ सरकारीभाषा क्युँ न हो ?

ओड़िआभाषा प्रति द्वेषपूर्ण मानसिकता रखनेवाले
बड़लाट के प्रश्न पर चुप रहे ।

अब तो लर्ड कर्जनने तय कर लिया कि
वे इस विषय मे निष्पक्ष छानवीन के लिए खुद सम्बलपुर जाएगेँ ।

26 तारिख को
सम्बलपुरवासीओँ ने लर्ड कर्जन का भव्य स्वागत किया था ।

इसबारे मे सम्बलपुर हितैषिणी संवादपत्र ने पुरा पन्ना भरकै लेख छपा था
[हितैषिणी 16 अक्टोवर 1901 पृ.90 देखो]

बड़लाट के डर से हो या सम्बलपुर मे लोगोँ से खुस हो
फ्रेजर ने
घोषणा करदिया कि जल्द संबलपुर मे ओड़िआ भाषा पुनः प्रचलन होगा !

दिर्घ 6 साल बाद संबलपुर मे ओड़िआ पुनः प्रचलन मे आया ।
1 जनवरी 1903 मे ओड़िआ भाषा संबलपुर का सरकारी भाषा बना
50 प्राथमिक स्कुलोँ मे ओड़िआ भाषामे पढ़ाया जाने लगा !

भाषा आंदोलन मे जीतने के बाद अब संबलपुर को
ओड़िशा(कटक ,बालेश्वर,पुरी)
मिला देने को कवायत तेज हो गए ।

http://www.bhubaneswarbuzz.com/updates/odia-articles/odiapost-1901-sambalpur-chandrasekhar-behera-odia-bhasha-andolan

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

उत्कल देश मे आठवीँ सदी मे ही चार रानीओँ ने कि थी शासन

'गृहदेव पाटक'
यह नाम बर्त्तमान Odisha के पल्टिकाल मैप मे आज ढ़ुँडने पर भी नहीँ मिलता !
आज से 1400वर्ष पूर्व
600वीँ सदी मे
‪#‎ शैळोभव‬राजवंश के राजाओँ
का आधिपत्य
उत्कळ तथा समस्त भारतीय उपनिवेशोँ पर था ।
कहते है 6ठीँ सदी मे
‪#‎ भौमकर‬लोग शैळोभवोँ को
‪#‎ उत्कल‬देश मे पराजित कर राजा बने
और
इस तरह से शैळोभव राजवंश का शासन केवल भारतीय उपनिवेश यानी इंडोनेसिया, जावा ,बोर्णिओ , मालेसिया मे सीमित रहगया !
बाद मे इन्ही शैळोभवोँ ने इंडोनेसिया मे श्रीविजय साम्राज्य कि नीँव रखी !
खैर ये भौमकर कौन थे कहाँ से आये
कोई ऐतिहासिक प्रमाण नही मिलते
लेकिन असम के ओहम लोगोँ के साथ इनका वैवाहिक संबन्ध
होने का पता चला है ।
भौमकर राजा पहले पहल बौध धर्म अनुयायी थे
परंतु च्युँकि अब उनकी नयी राजधानी ‪#‎ जाजपुर‬मे स्थापित हो गयी
प्रजा को देख राजा को भी शाक्त धर्म उपासक बनना हुआ ।
सातवीँ सदी मे हर्ष वर्धन ने भौमकर राजाओँ को परास्त कर उत्कलदेश को अपने शासन अधिनस्त कर लिया ।
और अन्ततः 8 वीँ सदी मे ये कुछ हदतक स्वतंत्र हुए !
आसाम तब कामरुप कहलाता था और सातवीँ सदी मे
आसाम के अहोम राज्य मे
कोई एक व्यक्ति समुचे राज्य पर
एकाधिपत्य शासक नहीँ होता था
वरन 12 सामन्तोँ के हातोँ मे शासन भार होता था
इस तरह के शासनप्रणाली को सामन्त चक्र शासन कहाजाता है ।
अहोम लोगोँ के नामसे बादमे इस क्षेत्र का नाम आसाम हुआ है ।
अब च्युँकि भौमकर जाति के लोगोँ का अहोम जाति के लोगोँ के साथ सांस्कृतिक वैवाहिक संपर्क था
इसलिये 7वीँ सदी के उत्कल देश मे भी सामन्त चक्र शासन प्रणाली लागु हुआ होना मानाजाता है !
उनदिनोँ बर्तमान जाजपुर जिल्ला मे यह गृहदेव पाटक सहर हुआ करता था ।
आगे चलकर इसी भौमकर राजवंश के एक नहीँ दो नहीँ
चार रानीओँ ने उत्कल देश सिँहासन अलंकृत किया था
जिनमे से ‪#‎ बकुलमहादेवी ‬प्रमुख है ।
मानाजाता है भूयाँ जनजाति के लोग ही प्राचीन भौमकरोँ के बर्तमान वंशज है ।

आठवी सदी के भौमकर राजा शुभकर परमसौगत के राजत्वकाल मे हर्ष साम्राज्य से उत्कल प्रायः स्वतंत्र हो गया था
शुभकर के पुत्र शान्तिकर ने नागदेश राजकन्या त्रिभुवन महादेवी से विवाह करलिया
लेकिन वो राज भोग नहीँ पाया
उसकी अकाल मृत्यु हो गई ।
शान्तिकर के युँ अचानक मृत्यु से
सामन्तचक्र भूयाँ सामन्तोँ ने सर्व सहमति से परम वैष्णवी त्रिभूवन महादेवी को भौम सिँहासन मे बिठाया !
इस राज्याभिषेक के संदर्भ मे एक ताम्र फलक मिला है
जिसमे लिखा है
"हे देवी !
पूर्व भी संसार त्यागकर धर्म कार्य को स्वयं का सर्वस्व मानकर गोस्वामिनीओँ ने प्रजाओँ के सुखदुख कि रक्षा के लिए बहुबार बसुन्दरा को चलाया था !
इसी तरह अब आप भी प्रसन्न होइए और इसी तरह सुचिर साम्राज्य चलाओ
लोगोँ का अनुग्रह करो
परंपरागत राज्यलक्षी को अपना मानकर स्वीकार करो
सामन्तचक्र द्वारा इस तरह के निवेदन से त्रिभुवन माहादेवी कात्यायनी कि तरह सिँहासन पर जा बैठी"
इससे पताचलता है कि इससे पहले भी कोई कोई रानी उत्कलीय सिँहासन पर बैठकर राजत्व कर चुकि थी ।
भौम वंश मे गौरी महादेवी ,बकुळ महादेवी ,परम महेश्वरी ,दण्डी माहादेवी नाम्नी रानीओँ ने राजत्व किया
इससे उत्कल देश मे प्राचीनकाल से ही नारीओँ को पुरुषोँ के बरबार सम्मान मिलने
कि बात प्रमाणित हो जाता है ।