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गुरुवार, 30 जुलाई 2015

उत्कल ओड़िशा पर मुस्लिम आक्रमण ....(भाग 2)

मादलापांजी नामक उत्कलीय ग्रँथ से पताचलता हे की आखरी गंगवंशी राजा अकटाअवटा भानु के राजत्वकाल मेँ अकवर के दूत ने ओड़िशा से मित्रता का हाथ बढ़ाया था । परंतु कपिलेन्द्रदेवजी के राजत्वकाल मेँ चौतरफा भिषण युद्ध छिड़ा था ।
दक्षिण भारतीय मुसलमान च्युँकि कर्णाट व तेलगांना राज्य के खिलाफ लम्बे समय से विद्रोहरत्त थे उन्होने ओड़िशा पर ज्यादा तबज्जोँ नहीँ दिया ।

मुस्लिम ऐतिहासिकोँ कि माने तो ओड़िशा राजा कपिलेन्द्र देव के वजह से पठानोँ ने ओड़िशा पर फिर हमला किया था जबकी ये बात वो बदलनहीँ सकते कि उनके पूर्वज ही प्रथम आक्रमणकारी था च्युँकि यही संसारी सत्य है !
हुमायुन शाह बाहमन के राजत्वकाल मेँ तेलेगाँना क्षेत्र के लोगोँ पर पठानोँ का अत्याचार सोच से परे है । अब तेलेगाँ लोग
अत्याचार से प्रताड़ित हो ओड़िशा मेँ आनेलगे ।
जब कपिलेन्द्र देवजी को ये बात ज्ञात हुआ उन्होने तुरंत कारवाई करते हुए अपने सैनिक व हाती भेजकर तेलगाँना को मदद पहचाँई ।
दोनोँ राज्य कि सैन्योँ ने मिलकर मुसलमानोँ को पिछे खदेड़ दिया था ।
हुमायुन का पुत्र निजाम शाह के राजत्व काल मेँ फिर तेलेगांना पर हमला हुआ । मुस्लिम सैन्य बड़े जोश के साथ आगे बढ़रहे थे लेकिन जब उन्हे पताचला कि उत्कल राजा आगे उनसे लढ़ने हेतु तैयार बैठे है वो सब निराश हो लौट गये ।

राजमेहेन्द्र से कंटापाली तक का क्षेत्र तब #उडिया नामसे जानाजाता था । वहाँ का राजा 1417 मेँ मुसलमानोँ से जा मिला । लेकिन हिम्ब राज्य का राजा महम्मद शाह ने उसी कि राज्य पर कब्जा कर ली ।
उड़िया राजा का जब ज्ञानोदय हुआ तो वो फिर उत्कल राजपरिवार से जा मिले परंतु तबतक कपिलेन्द्र देव बृद्ध हो गये थे तथा उनका कोई शक्तिशाली वंशज भी न था तो
अहमन शाह से हारकर उससे संधि करना पड़ा । पर अहमन शाह के मन मेँ प्रतिहिँसा का आग सुलग रहा था । उसने अपने 20000 कातिल हैवान सैनिकोँ को लेकर ओड़िशा/उत्कल पर हमला करदिया और लुटपाट करते हुए राजधानी तक आ पहँचा । उसे हालाँकि इस युद्ध मेँ जीत मिली परंतु प्रतिकूल जलवायु व खाद्याभाव आदि समस्याओँ के कारण वो बिना राजधानी लुटे ही लौटगया ।

पुरुषोत्तम देव के राजत्व काल मेँ मुसलमानोँ ने उत्तरी दिशा से #कटक वारबाटी दुर्ग पर हमला किया । वहाँ के राजा अनन्त सामन्त सिँहार कटक दुर्ग को बचा न सके और गुप्त रुप से सारंगगढ़ मेँ रहने लगे । मुसलमानोँ ने तय कर लिया था कि वो अब #पुरी व #जगन्नाथ जी को फतह करके ही लौटेगेँ ।
राजा प्रतापरुद्र देव का वो राजत्वकाल था....बुढ़े प्रतापरुद्र ने भगवान जी को समंदर बालु मेँ छुपाने के लिये कहा और खुद शत्रुऔँ से संधि करने पहँचे ।
संधी मेँ देवस्थल से दूर रहना का प्रस्ताव मुसलमानोँ ने मानलिया व लौट गये ।
1531 मे प्रतापरुद्र देव भी चलवसे और उनके साथ साथ उत्कल भाग्यरवि भी डुबगया

क्रमशः..,.
ये लेख prachin utkal ओड़िआ किताब दुसरे भाग से प्रेरित है

मूल लेखक जगबंधु सिँह है




उत्कल / ओड़िशा पर मुस्लिम आक्रमण (भाग 1)

1212 मेँ दिल्ली राजगद्दी पर राजकरनेवाला गयासुद्दिन वलमन नेँ ओड़िशा प्रान्त से लगान माँगने हेतु धमकीभरा पत्र के साथ अपना दूत भेजा !
बंगाल के राजाओँ ने तबतक गयासुद्दिन से डर कर लगान दिल्ली भेजदिया था ।
अब बंगाल के निकट स्थित उत्कल/ओड़िशा की बारी थी ।

परंतु ये लागुंडा नरसिँह देवजी का राजत्वकाल था स्वाधिनता तब स्वाभिमान बनकर ओड़िआओँ के अंग अंग मेँ समाया हुआ था ।

गयासुद्दिन को जबाबी पत्र लिखकर भेजदिया गया ..,इससे
दिल्ली के मुसलमानोँ ने ओड़िशा पर हमला करदिया परंतु पराजित होकर लौटगये ।

पर मुस्लिम जाति का एक नियम ए है कि ये लोग हारकर पिछे जरुर हटजाते है परंतु वेशर्मोँ कि भाँति आतर्कित हमले के लिये फिर आ धमकते है ।

1243 मेँ तोगान खाँ ने ओड़िशा पर हमला किया बदले मेँ ओड़िआ वीर पाइकोँ नेँ उसे हराते हुए दिल्ली शासनाधीन गौड प्रदेश या बंगाल पर अधिकार कर लिया ।

1253 मेँ तोगान खाँ ने पुनर्वार हमले किए पर फिर मुँह काला करके दिल्ली लौटा

अब मुसलमानोँ ने उत्तर व दक्षिण दिशाओँ से ओड़िशा पर हमला करना शुरुकरदिया ।
परंतु राजा व सैन्य एकमन हो लढ़ते रहे और तबतक लढ़ते रहे जबतक राजा व प्रजा मेँ एकता बरकरार रहा ।

कहते है भाई भाई मेँ झगड़ा लगा हो तो इसमेँ दुसरे लोग अपना अपना फायदा उठाने के लिये उन्हे आपस मेँ और लढ़वाते है ।
1309 मेँ उत्कल राजा ने अपनी ही प्रजा पर विजय पाने के लिये मुसलमानोँ की सहायता माँगकर
अपनी ही पैरोँ पर कुराड़ी दे मारी । अब च्युँकि संधी के हिसाब से ओड़िशा दिल्ली दरवार को लगान देने के लिये राजी हो गया 1309 से 1451 तक कोई मुस्लीम आक्रमण नही हुए ।
1451 आते आते कुछ पठान आ कर के ओड़िशा मेँ लुटपाट करने लगे । तबतक मुसलमानोँ ने मान्द्राज Chhenai मेँ अपना वसेरा बना लिया था ।
ओड़िशा व दक्षिण भारतीय प्रजा इनके दौरात्म्य से परेशान हो गई थी ।
1452 साल मेँ दक्षिण भारतीय राजा के साथ ओड़िशा राजा ने मिलकर पठानोँ पर हमला करदिया । परंतु अंत मेँ 8000000 रु देकर उन्हे दिल्ली दरवार से शान्ति समछौता करना पड़ा ।
कुछ दिन क्षेत्र मेँ सब शान्त रहा परंतु अब ओड़िशा व दक्षिणभारतीय राजाओँ के बीच आपसी खिँचतान शुरु हो गयी ।
ये झगड़ा युद्धरुप लेनेलगा और आखिरकार
राजमहेन्द्री व कंटापाली के राजाओँ ने दक्षिण ओड़िशा स्थित दो दूर्ग पर कब्जा कर लिया !
इससे ओड़िशा राजा की ज्ञानोदय हुआ वे फिर दक्षिण भारतीय राजपरिवारोँ के संग जा मिले ।
अब ये बात मुसलमानोँ को अछी नहीँ लगी तो दिल्ली दरवार ने फिर 20000 पठान ओड़िशा जीत के लिये भेजदिया । पठान आक्रमणकारीओँ के द्वारा
कुछ लुटपाट व मंदिरोँ को ध्वस किया गया परंतु हिन्दु एकता के हार कर लौटे ।

15वीँ सदी मेँ ओड़िशा राजा फिर मुसलमानोँ से जा मिले और दक्षिण महेन्द्री राजपरिवार के खिलाफ युद्ध के लिये दक्षिणभारत पर चढ़ाई की परंतु
ये युद्ध दिर्घकाल तक चला बीना किसी निर्णय के !
16वीँ सदी मेँ कृष्णराय राजमहेन्द्री राजसिँहासन पर विराजित हुए ।
कहते है ' वे असाधरण वीर कुशली तीरंदाज भी थे ,उनके वीरता का आलम ये था की एकबार तो उन्होने पठानोँ की एक बड़ी टोली को समंदर कि और कुच करजाने को विवश कर दिया था ।
उनकी शौर्यगाथा सिलोन (Srilanka) से तिब्बत तक प्रसिद्ध हुआ है....
मुसलमानोँ के लिये वो आखरी काँटे थे । ओड़िशा से लम्बे दिनोँ तक चलरहे सीमाविवाद को निपटाने व पारिवारिक संबन्ध बनाकर आपसी एकता को और मजबुत करने हेतु कृष्णराय ने अपनी एक कन्या का विवाह ओड़िशा राजा से करवाया ।

क्रमशः .... Prachin utkal 2 nd part odia history book का हिन्दी अनुवाद

मूल लेखक जगबंधु सिँह है