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अनंत_वासुदेव_मंदिर भूवनेश्वर कि सर्वप्रथम पुरातन विष्णु मंदिर है ।पुरातन काल मे भूवनेश्वर को शैव क्षेत्र के रुप मे जानाजाता था यहाँ कई प...

रविवार, 30 अगस्त 2015

ओड़िशा का अपना स्वतंत्र व्रत खुदुरुकुणी

भाद्रव माह मेँ हर रविवार
ओड़िशा के पूर्वी क्षेत्रोँ मेँ
#खुदुरुकुणी #Khudurukuni
नामसे
यह व्रत बहनोँ द्वारा उनके भाईओँ कि लम्बी उम्र के लिये रखाजाता है ।
कभी #उत्कल प्रान्त #शाक्तधर्म प्रभावित हुआ था ।
अतः गाँवदेहातोँ मेँ आज भी #विरजा #बिमला #मंगला #चंडी #चर्चिका आदि देवीओँ का पूजा व व्रत रखाजाता है ।

*. खुदुरुकुणी मेँ देवी मंगला की पूजा कियाजाता है । पुराने जमाने मेँ ग्रामकन्याएँ मिट्टी से मंगला देवी कि मूर्ति बनाया करती थी । आजकल कारिगरोँ के हातोँ बनायेगये मूर्तिओँ से
बड़े धुमधाम से व्रत रखा जाता है । वाकायदा आतिशवाजी
लाईटिगं के साथ मूर्तिविसर्जन भी किया जाता है ।

खुदुरुकुणी दरसल खुदरकुंणी का अपभ्रंस है
ये दो शब्दोँ के मिलन से बना है
खुद+रकुंणी ।
खुद का अर्थ है चावल का दाना
रकुंणी का अर्थ दीवानी ।
चावल कि दाना भोग लगाने से भी देवीमंगला प्रसन्न हो जाती और
भक्तोँ कि मनोकामनाएँ पूर्ण करदेती ।

इस तौहार के पिछे एक जनसृति प्रचलित है

पूर्वोत्तरमे #साधव नामसे प्रसिद्ध व्यापारी कुल रहते थे ।
ये इंडोनेसिआ मालेसिआ आदि क्षेत्रोँ से नाव द्वारा व्यापार किया करते थे ।

ऐसे ही एक साधव घर कि कन्या
#तपोई के सात भाई भी व्यापार करने जाहज लेकर विदेश गये हुए थे ।
इधर बड़ी #भाभीओँ ने एक #विधवा_ब्राह्मणी_बुढ़िया के कहने पर #तपोई को घर से निकालदिया । कई यातना देते हुए भाभीओँ ने सुकुमारी
तपोई को बकरी चराने जैसा काम दिया । तपोई
सब दुःख दर्दोँ को सहन करलेती थी...वो ग्राम देवी मंगला को नित्य वन से चुनकर लायेगये फुलोँ से सजाती थी । एक दिन एक बुढ़ीऔरत ने उसे खास विधीओँ द्वारा भाद्रव माह मेँ देवी मंगला को पूजने के लिये कहा !!
उसने ऐसा ही किया
उसके भाई लौट रहे थे
देवी के प्रेरणा से जाहाजीओँ जलदस्युँ को युद्ध मेँ परास्त किया ।
इधर साधव के घर मेँ बड़ी बहू कि चहेती बकरी "Gharamani" खो गई !
भाभीओँ ने #तपोई को मारा पिटा फिर उसे कहा
जा या तो घरमणी को लेकर लौटना या कहीँ ड़ुब मरना !!
रोती बिलखती हुई तपोई रातमे जगंलो मे #घरमणी को ढ़ुड़ती रही ।
तभी घर लौट रहे सप्तसाधव भाईओँ का जहाज किनारे आ लगा । भाईओ नेँ नजदिक जंगल मेँ किसी की रोने कि आवाज सुना ।
बड़े भाईओँ ने सबसे छोटे भाई को जंगल मेँ जाकर देखने को कहा ।
छोटे भाई ने जंगल मेँ तपोई को पहचान लिया उसे जहाज मेँ ले गया ।
तपोई ने अपने भाईओँ को सारी सच्चाई बतादिया ।
भाईओँ ने जाहज पुजा के लिये अपनी पत्नीओँ को खबर भेज दिया । वो सब तपोई के खोजाने से डरी हुई थी ।
बड़े भाई धनेश्वर ने सभी साधवपत्नीओँ को जहाज मेँ देवी मंगला कि पूजा करने भेजदिआ ।
एक छोटीबहु निलेन्द्री ने च्युँकि
तपोई का पक्ष लिया था उसे छोड़ देवी मंगला ने सभी 6 साधवपत्नीओँ कि नाक काट दिया ।

उधर आश्रित विधवा ब्राह्मणी बुढ़िया साधवपत्नीओँ की गहनोँ को चुराकर भागरही थी सिपाहीओँ ने उसे पकड़ा और राजा के हवाले करदिया ।

इसतरह मंगला माता ने अपनी आश्रित भक्त कि रक्षा करते हुए
उसके भाईओँ से भी उसे मिला दिया ।

"जनसृति के पिछे छिपा इतिहास"

आजसे 1500वर्ष पूर्वतक ओड़िशा मेँ कोई जातपात न था
ओड़िआ या तो किसान ,सैनिक ,मछवारे ,नाविक या कलाकार हुआ करते थे ।
परंतु वैष्णवोँ के आगमन से
धीरे धीरे जातपात का अभ्युदय
होनेलगा ।
ब्राह्मणोँ ने क्षत्रियोँ को साथ कर
तपोई रुपी व्यापारी साधव जाति को अपमानित किया
अंत मेँ साधवोँ ने मंगला रुपी एकता के बलपर
उनपर विजय पा लिया ।
ओड़िशा मे पायेजानेवाले साहु सरनेमधारी साधाराण खेती करनेवाले चषा लोग साधवोँ के वंशज है ।




गुरुवार, 27 अगस्त 2015

ओड़िशा के ढ़ेकाँनाल क्षेत्र मेँ "चषा" जाति व अन्य जातिओँ पर सम्यक जानकारी

ओड़िशा मेँ खेति करने वाले लोगोँ को आम बोलचाल मेँ "चषा" कहाजाता है ।
मेरे ढ़ेँकानाल मेँ प्रायः चार प्रकार के #चषा बताये जाते है

1.Khandayat Chasa

सैनिक किसान जो अब तलवार छोड़ चुके है खेती करते है


2.Pandarasariya-
साधारण खेती करनेवाले
वैश्य कुल

3.kalatuaa chasaa_

साधव -पुरातन व्यापारी कुल

4.thuriya chasa
साधारण किसान वैश्य कुल

इसके अलावा
यहाँ "Halua bramhan"
ब्राह्मण कुल भी पाया जाता है
जो खेती व साहुकारी करते है

#Dhenkanal जिल्ला मेँ Baulpuriya chasa नामसे

एक स्वतंत्र कृषक कुल भी पायाजाता है
जिसे कुछ लोग Khandayat के समकक्ष मानते है ।

कृषकोँ कि इन अलग अलग उपजातिओँ मेँ पारस्पारिक विवाह संबन्ध वर्जित
है फिर भी यदि कोई शादी करना चाहे तो समाज बिठाकर
कर सकता है ।

मेरा गाँव KANTIO मेँ कुल 36 जाति के लोग रहते है जिसमेँ 40% Khandayat है
खंडायत सरनामोँ मेँ
#JENA
#BISWAL
#SAHOO
#PARIDA
#PRADHAN
#RAUT
आदि मुख्यतः पायेजाते है ।

मेरे गाँव के आसपास Putasahi ,महिमाक्षेत्र jaka , Khuntabati ,kantio kateni , tumisinga आदि गाँव के लोगोँ को Kalatuaa Chasa कहाजाता है ।

आज से करिबन 1500वर्ष पूर्व
साहु Titel धारी ज्यादातर लोगोँ के पूर्वज #साधव कहलाते थे.....

1000 वर्ष पहले तक Odisha का पिपिलि चित्रोत्पला आदि वंदरगाहोँ से
मलेसिया .इंडोनेसिया ,मिशर व युरोप के साथ व्यापारीक संपर्क कायम था ।
धीरे धीरे ओड़िआ लोग जैन ,वौद व शैव धर्म छोड़ वैष्णव होने लगे....व्यापार छोड़ खेती करने पर ज्यादा तबज्जो देने लगे ,
Odisha मेँ जातिप्रथा वैष्णवोँ कि देन है । यदि ओड़िशा मेँ वैष्णव धर्म स्थापना न होता तो शायद आज ज्यादातर ओड़िआ
अन्य धर्म ग्रहण कर चुके होते ।
ओड़िशा मेँ वैश्णव धर्म के प्रचारकोँ मेँ श्री चैतन्य प्रधान मानेजाते है ।
उनका

"Bhaja shri krushna chaitanya prabhu nityananda japa hare krushna hare ram shriram gobinda"

महामन्त्र आज भी भजन किर्तनोँ मेँ गयाजाता है
वैष्णवोँ ने यहाँ ब्राह्मण व क्षत्रिय शासन (स्वायत्त गाँव) भी वसाया था ।

कुल मिलाकर
पहले ओड़िआ लोग किसान ,सैनिक साधव व नाविक हुआ करते थे
वैष्णवोँ ने जातपात को बढ़ावा दिया परंतु
आदिवासी भगवन को पूजने वाले ओड़िआओँ ने सर्वदा जातपात से ज्यादा मानव धर्म को तबज्जो दिया

यही कारण था कि यहाँ
उतना धर्मान्तरण नहीँ हो सका जितना शेष भारत मेँ हुआ था ।

[[आगे बताउगाँ कैसे वैष्णवोँ ने
एक आदिवासी भगवान जगन्नाथ को वैष्णव बनाने कि गहरी चाल चली
और 16वीँ सदी तक सफल भी हुए । ]]

बुधवार, 12 अगस्त 2015

ओड़िशा और आदिवासी संस्कृति

ओड़िशा एक नहीँ तिन संस्कृतिओँ की मिलनस्थली है
1.आदिवासी
2.द्राविड
3.आर्य
आदिवासी इस क्षेत्र की मूल निवासी है फिर यहाँ द्राविड़ोँ का आगमन हुआ और अन्त मेँ आर्योँ ने इस क्षेत्र मेँ आकर आपसी एकता कायम करवाया ।
इसलिये पंडित नीलकंठ दासजी से लेकर के जर्मन विद्वान हर्मन् कुलके तक सभी ने यही मत दिया कि बर्तमान ओड़िआ संस्कृति आदीवासी संस्कृति से प्रभावित था ।
नीलकंठ जी ने तो यहाँतक कहा है "ओड़िआ भाषा मेँ आर्य है परंतु इनकी संस्कृति सर्वथा द्राविड़ रही है " !!!
इन तिनोँ संस्कृति के समन्वय को तथा जैन ,बौध ,वैदिक धर्म के एकीकृत अवस्था को जगन्नाथ संस्कृति कहाजाता है ।
जगन्नाथ शवरजाति के आदि परमेश्वर हे जिन्हे बादमेँ सभी पंथ के विद्वानोँ ने अपनाया । उन महाप्रभु के प्रथम पूजक आदिवासीओँ का ओड़िशा मेँ 62 जाति पायीजाती है
जिनकी जनसंख्या राज्य कि कुल जनसंख्या की 24% हे ।
इनमे शवर ,मुण्डा ,कोल्ह ,सान्ताळ और भील जातिओँ के बारे मेँ पौराणिक ग्रंथो मेँ बताया गया है ।
ओड़िशा मेँ रहनेवाले आदिवासीओँ का अपना 36 स्वतंत्र उपभाषा हे !! इसमेँ सबसे ज्यादा वोलीजानेवाली भाषाओँ मेँ देशीआ/Kotia ,साद्री और सान्ताली प्रमुख है ।
आदिवासी संस्कृति उत्कलीय संस्कृति कि प्राणकेन्द्र है आर्य सभ्यता अंगप्रत्यगं व द्राविड
सभ्यता रक्त हे ।
मुझे गर्व है मेँ एक ऐसे क्षेत्र मेँ निवाश करता हुँ जहाँ जातपात के नाम पर उत्तरभारतीयोँ कि तरह आपसी भेदभावमेँ नहीँ जिया करते ।
ओड़िशा के वाहार कोई मुझे यदि आदिवासी कहता हे तु मेँ इसे अपनी तारिफ समझता हुँ और उस व्यक्ति छोटी सोच पर मुझे अफसोस भी होता है ।
मानव मात्र मेँ प्रेम को गुरुत्व देनेवाले भोलेभाले प्रकृतिप्रेमी आदिवासीओँ का तो पुराणोँ मेँ भी गौरव बढ़ाया गया है !!!!

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

ओड़िशा मेँ मोगलराज

उत्कल राजा मुकुन्ददेव का मुसलमानोँ के हातोँ परास्थ व निहीत होने के पश्चात कई वर्षोँ तक ओड़िशा अँधकार युग मेँ जीनेलगा था । अंत मेँ मुकुन्द देव के कुछ विश्वासी मन्त्रीओँ ने "दनेइ विद्याधर" के पुत्र
"रणेइ राउतरा" को
"रामचँद्र देव" उपाधी देते हुए ओड़िशा का राजा घोषित कर दिया !

मुस्लिम ऐतिहासिक फेरस्ता के किताब से पताचलता है कि
--सुलेमान कारसान उर्फ गरजानी का पुत्र दाउद खाँ कुछदिनोँ तक ओड़िशा खंड का दखलकार था ।
दिल्ली सम्राट अकबर उनदिनोँ बंगाल के अफगान शासनकर्ताओँ से वेहद खफा थे । अंतमे मोगल सेनापति मनेम खाँ व खाँजाहान नेँ अफगानोँ को हराकर 1568 मेँ बंगाल व ओड़िशा को दिल्ली साम्राज्य मेँ मिलादिया था ।--

*फिर कुछदिनोँ बाद
अकबर के सेनापतिओँ मेँ जानेमाने "शवाई मानसिँह"
साम्राज्य संबधीय कार्य तदारख के लिये ओड़िशा आये और यहाँ कि देवालय व समाजिक व्यवस्था देखकर उनके मनमेँ ओड़िशा के लिये अपनापन और प्रगाढ़ हुआ !
कुछदिन ओड़िशा मेँ काटकर जाते समय शवाई मानसिँह ने पुरी राजा रामचंद्र देव को ओड़िशा का संपूर्ण राज सौँपते हुए दिल्ली लौटे ।

1582 मेँ मोगल राज के देवान टोडरमल्ल ओड़िशा आये ! और शावाई मानसिँह कि तरह उन्हे भी ओड़िशा व ओड़िआ लोग खुव भाये ।
जाते समय टोडरमल्ल ने ओड़िशा को करमुक्त करदिया ।

1592 तक मोगल राज ने ओड़िशा पर खास तबज्जो नहीँ दिया था परंतु उसी वर्ष बंगाल के प्रतिनीधि राजा मानसिँह के आगमन से इस क्षेत्र मेँ मोगलराज होना तय हो गया ।
उनदिनोँ ओड़िशा के पुरी राजा रामचंद्र देव
व मुकुन्ददेव के दो पुत्र रामचन्द्र राय तथा छकड़ी भ्रमरवर के बीच ओड़िशा पर प्रभुत्व पाने के लिये होड़ लगी हुई थी ।
परंतु मानसिँह के मध्यस्थता मेँ
सारे विवादोँ का अन्त हो गया ।
इसके तहत पुरी, खोर्दा ,कटक ,घुमुसुर, महुरी तथा गंजाम जिल्ला की खेमण्डी सीमातक कि सारी जमीन रामचंद्र देव को
पूर्ण स्वतंत्र शासन हेतु प्राप्त हुआ ।
वहीँ मुकुन्ददेव के बड़े पुत्र रामचंद्र राय को #आळि व इसके अधीनस्थ सभी क्षेत्र जमीदारी के तहत प्राप्त हुए ।
मुकुन्ददेव के कनिष्ठ पुत्र छकड़ि भ्रमरवर को सारगंगड़ प्राप्त हुआ ।
मानसिँह ने अफगानोँ को परास्त कर उत्कल व बंगाल मेँ कुछ हद तक विद्रोह दमन किया तथा इस क्षेत्र मेँ कुछ काल तक शान्ति स्थापना हो पाया ।
इसबीच अफगानोँ ने 1599 और 1611 मेँ फिर विद्रोह किया परंतु प्रादेशिक शक्तिओँ से उन्हे कड़ी चुनौति मिलता रहा और वो हमला करते रहे ,असफल होते रहे ।
1600 वी सदी मेँ अकबर ने ओड़िशा बंगाल का शासनभार अपने बड़े पुत्र के उपर न्यस्थ किया ।
परंतु अकबर के मृत्यु बाद जाहागिँर ने इस क्षेत्र को अपने छोटे भाई के हातोँ सौँप दिया ।
फिर 1612 से 22 तक ओड़िशा दिल्ली सम्राट के साले साहेब के हातोँ रहा ।
1622 मेँ साहाजाहान के साथ उनके मामा मकरम् खाँ का किसी बात पर झगड़ा हो गया और वो दिल्ली से ओड़िशा आ गया एक वर्ष के अंदर अंदर उसने बंगाल के नवाब को हराकर बंगाल पर राजकरना शुरुकिरदिया था । 1624 तक बंगाल पर राज करने के बाद दिल्ली कि शक्ति के आगे परास्त हो ओड़िशा लौटा !!!

क्रमशः....