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अनंत_वासुदेव_मंदिर भूवनेश्वर कि सर्वप्रथम पुरातन विष्णु मंदिर है ।पुरातन काल मे भूवनेश्वर को शैव क्षेत्र के रुप मे जानाजाता था यहाँ कई प...

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

श्री अरविंद ने ओडिशा एकत्रीकरणको कहा था क्षेत्रवाद

1905 में बंगभंग के बाद
बंगाल में  जन असंतोष अचानक आन्दोलन बना और च्युंकि तब कलकत्ता भारत कि राजधानी थी
एक क्षेत्र विशेष में हो रही क्रान्ति समुचे देश में फैलगया ।
उनदिनों श्री अरविंद जैसे महात्मा बंगभंग के खिलाफ सशक्त आवाज उठाने को उठखडे हुए थे....

2 साल बाद.....

1907 दिसेंबर 13 तारीख को
श्रीअरविंद ने अपने पत्रिका #बंदेमातरम्
में एक संपादकीय लिखा था....

इसमें उन्होंने #ओडिशा तथा #मधुसूदन दास जी का सम्मान पूर्वक कुछ युँ उल्लेख किया था....

"ओडिशा प्रेसिडेंसी में बर्त्तमान समय में नवजागरण नवचेतना के नवयुग में सूर्योदय हुआ है ।
उडीसा अपने अस्तित्व रक्षा हेतु मधुसूदन दास सरीखे दक्ष,शक्तिशाली नेता के अगवाई में लगगया है ।
हम नहीं जानते उनका आशय क्या है मगर हमें आशंका हो रहा है कि यह उडीआ भाषा आन्दोलन कहीं क्षेत्रवाद को बढावा न दे दें
हम भारत को एक देखना चाहते है..."(अरविंद)

जवाब में उत्कल गौरव मधुसूदन दास ने एक अंग्रेजी आर्टिकिल लिखा जिसमें पहले तो उन्होने श्रीअरविंद कि प्रशंसा कि फिर उन्होने उनके आशंकाओं को दूर करते हुए कहा था.....

"यदि 2 हिस्सों में बंटे हुए बंगाल के पुनःमिश्रण के लिए हो रहे एक क्षेत्रविशेष के आन्दोलन को जातीय सर्वभारतीय आन्दोलन का दर्जा मिला है तब
चार राज्यों में बंटे हुए प्राचीन कलिंग/उत्कल देश के पुनः एकत्रीकरण
को कैसे क्षेत्रवाद कहा जा सकता है ?
बंगभंग के खिलाफ तुम्हारा आंदोलन का जो उद्देश्य हे बिलकुल वही उद्देश्य हमारा भी है ।
इसलिए बंगभंग आंदोलन से जुडे लोग हमें  भी समर्थन करें तभी तुम और हम दोनों सफल हो पावेगें...."

खैर मधुसूदन दास के कहने पर उनकी सोच थोडी बदलनेवाली थी
तथाकथित राष्ट्रियनेता इसे कभी राष्ट्रिय मुद्दा मानते ही नहीं थे
यहाँतक कि गांधी ने भी हमारे नेताओं को ये नशीहत दे दीं थी कि वे ये सब आंदोलन रोक दें....

आज भी यही हो रहा है
जब मैं ओडिशा कि बात करता हुँ
तुम्हे लगता है ये क्षेत्रवाद है....
लेकिन नहीं ना तो तब वो क्षेत्रवाद था न आज यहाँ कोई क्षेत्रवाद फैला रहा है

अपने मिट्टीको लेकरके सबमें स्वाभिमान होना ही चाहिए
किसीके द्वारा हमारी संस्कृति भाषा मिट्टी पर मूर्खतापूर्ण टिप्पणी का उसी के भाषा में जवाब मिलेगा

जय हिंद
बंदे उत्कल जननी

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

★★★★श्रीजगन्नाथपुरी मैं राम तथा रामनवमी★★★★

रामनवमी में श्रीपुरुषोत्तमपुरी में पूजाविधि बहुत ही रोचक है......

युँ तो श्रीजगन्नाथ  श्रीविष्णु के अवतारी रुप माने जाते रहे है
परंतु रामनवमी के दिन
श्रीजगन्नाथ मंदिर कि रीतिनीति शाक्तधर्म से प्रभावित प्रतीत होती है....

"रामनवमी के दिन रात्र के समय स्वयं जगन्नाथ माता के रुपमें
भगवन श्रीराम को जन्म देते है......"

अतः उनकीक्षप्रसव वेदना कम् करने के लिए
अष्ठमी के दिन संध्या आरती के बाद
श्रीजगन्नाथ को जेउड़ भोग(ଯେଉଡ଼ ଭୋଗ)तथा गर्भोदक अर्पण कियेजाते है..... ।

नवमी में श्रीविग्रहों का मध्याह्न धूपनीति संपन्न पश्चात जन्मनीति अनुष्ठित होता है.... ।
2 महाजन सेवकों को दशरथ तथा कौशल्या मानकर जन्मविधि पाला जाता है ।

च्युंकि यह गुप्तनीतिओं मे से एक है
अतः कोई इसे देख न लें इसलिए
मंदिर के गर्भगृह में स्थित जयविजय द्वार को
बंद करदियाजाता है ।

श्रीरामजी की जन्म हो जाने के बाद
कर्पुर आरती ,महासुआर गंडुस मसाला तथा दुग्ध मणोही होता है ।
इसके बाद पंडाजी शितलभोग कराने के साथ महासुआर जयविजय द्वारके पास
चरुभात मणोही कराते है.......

जगन्नाथ ना तो पुरुष है न स्त्री
न केवल बुद्ध है न शिव न ही विष्णु.....
वह तो गणेशभेष भी धारण करते है.....
उनमें शैव शाक्त वैष्णव वौद्ध जैन गाणपत्य आदि सभी पंथ तथा जातिगत एकता के
अन्यतम चिह्न है.....
वह सनातन है !!!!

●●●श्रीजगन्नाथजी का रघुनाथभेष●●●●

जिस वर्ष वैशाख शुक्ल नवमी गुरुवार हो तथा मकर राशि श्रावणा नक्षत्रयुक्त हो तथा रामजन्मतिथी पुष्या नक्षत्रयुक्त हो
उसी दिन श्रीजगन्नाथजी की रघुनाथभेष हुआ करता था ।
मान्यता है कि इसी तिथी में अयोद्धापति श्रीराम का राज्यभिषेक संपन्न हुआ था ।

26 अप्रेल 1905 गुरुवार को अंतिमवार
श्रीजगन्नाथ श्रीरामजी के भेष धारण किये थे....

1983 में वही लग्न फिर गिरा था लेकिन कंग्रेसराज में भ्रष्टनेताओं के वजह से मंदिर के लोग भी प्रभावित हुए थे इसलिए वर्षों पुराना रिवाज को तिलांजलि दे दी गयी......

अबतक कुल 9 बार श्रीजगन्नाथजी , श्रीरघुनाथ भेष धारण करचुके है

1.1577
2.1739
3.1809(मुकुन्ददेव के राज्यकाल 14वाँ वर्ष)
4.1833(रामचंद्रदेव के शासनकाल 19वाँ वर्ष)
5.1842(वीर किशोर देव शासनकाल में 3वर्ष)
6.1850
7.1893(द्वितीय मुकुंददेव शासनकाल)
8.1896(मुकुन्ददेव के शासनकाल)
9.1905~26 अप्रेल व्रिटिशराज में......

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

●●●●●भारत का सर्वप्रथम संगठन●●●●●

भारत का सर्वप्रथम संगठन
दक्षिण ओडिशा में बनाया गया था
1870 में....
संगठन का नाम था
"ओडिआ हितवादिनी सभा"

काटिगिंआ क्षेत्र के जमीदार
भेंकटेश्वर राउ इसके संस्थापक थे.....

ना केवल राजनैतिक वरन किसी भाषा संस्कृति को
संरक्षण समर्थन करने को बनाया जाने वाला
यह सर्व प्रथम भारतीय संगठन है....

भेंकटेश्वर राउ
कंधमाल के घने जंगलों में वह जैसे सूर्य कि भाँति उदय हुए ।
1866 में उन्हें जमीदारी मिलने के बाद से ही
वह अपने मन के विचारों को कार्य में रुपान्तरण करने के लिए कई गाँव सहरों मे घुम घुम कर लोगों को ओडिआ भाषा आन्दोलन कि यथार्थता समझाने में लग गये थे ।
हदगड,मुठा,चकापाद,अठर,करडा,रणदा,गदापुर,पालुर,हुमा,गंजा,महुरी,सुरंगी,जरडा़,खल्लिकोट,आठगड़,घुमुसर,धराकोट,सोरडा़,खेमुंडि,चिकिटि,जळन्तर,पारळा,
मंजुसा आदि क्षेत्रों के स्थानीय राजा तथा जनसाधारणों में जनजागरण ले आने में भेंकटेश्वर राउ सफल हुए ।

1870 में ही ओडिआ हितवादिनी सभा का सर्वप्रथम सभा रसुलकुंडा(भंजनगर) में आयोजित हुआ था....
और यही वह सभा थी जहाँ से पहली बार
बंगाल,मांद्राज,मध्यप्रदेश मे बंटे हुए ओडिआ भाषी क्षेत्रों को एकजुट करने के लिए संखनाद हुआ था.....

इस सभा में दक्षिण ओडिशा क्षेत्रों में तेलुगुभाषी लोगों का प्रार्दुभाव तथा ओडिआभाषी क्षेत्रों मे  तेलुगु प्रचलन कि उनकी कोशिशों का मुंहतोड जवाब
दियागया था ।
मंद्राज सरकार के लाट को इस सभा से  मिले स्मारक पत्र के बदौलत ही
मांद्राज राज्य मे सामिल ओडिआभाषी क्षेत्रों मे सभी सरकारी कार्यालय तथा स्कुलों में 4 मार्च 1872 को
ओडिआ भाषा को सरकारी भाषा का मान्यता मिला.....

इस घटना से प्रेरित हो कर हीं बाद में कटक सम्बलपुर तथा बालेश्वर में भाषा को लेकर बुद्धिजीवीओं में जागृति देखने को मिली थी.....