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मंगलवार, 26 जनवरी 2016

कर्मवीर गौरीशंकर

कर्मवीर गौरीशंकर राय ....

हिन्दीभाषी भाईओँ को शायद यह नाम नया लगे....

1866- [नव अंक दूर्भिक्य ] भयंकर अकाल के समय अंग्रेजोँ कि पोल खोलने के लिये

कुछ जागरुक ओड़िआ नौजवानोँ ने प्रथम

Odia पत्रिका‪#‎UtkalDipika‬
कि निँव रखी थी
इस पत्रिका के आजीवन संपादकसंचालक रहेगौरीशंकर ....

गौरीशंकर के पूर्वज‪#‎बंगाल‬से ओड़िशा आये और यहीँ के हो कर रहगये ....

ओड़िआ भाषा आन्दोलनव स्वतन्त्र उत्कल प्रदेश गठनमे गौरीशंकर जी का बहुत बड़ा हात है .....

वे अपने स्वतंत्रता व स्वाधीन मत को अक्षुर्ण रखते हुएपत्रिका संपादन के साथ साथसरकारी नौकरी भी किया करते थे....

एक दिन Utkaldipika मे तत्कालीन कलेक्टर द्वारा किएगये अनीति पर एक लेख छपा .....

कलेक्टर ने कार्यालय मे ही गौरीशंकर से जवाबतलब किया.....

कि आखिरकार एक सरकारी नौकर होते हुए भी तुमकैसे सरकार के खिलाफ लिखसकते हो .... ?!!

इसके उत्तर मे कर्मवीर गौरीशंकर ने कलेक्टर साहब को साफ शब्दोँ मे जवाब दिया.....

गौरीशंकर राय... वो उत्कलदिपिका के संपादक ने वह लेख लिखा था वो भी कार्यालय से छुट्टी के बाद अवसर समय मे...

..ये गौरीशंकर राय कलेक्टर केदफ्तर मेँ सरकारी कर्मचारी है Utkal dipika के संपादक नहीँ....

ये जवाब सुनकर वेचारा कलेक्टर निरुत्तर रहगया....

बुधवार, 20 जनवरी 2016

ओड़िशामेँ मोगलराज का अंत व मराठाराज कि अयमारम्भ...

1590 से 1595 तक अकबर के दो हिन्दुमंत्रीओँ के सुशासन हेतु
कुछ कालोँ तक शान्ति विराजमान रहा !
बाकी के वर्षोँ मे #ओड़िशा सिर्फ अशान्ति लुटपाट अराजकता का लीलाभूमि बनकर रह गया !

कहते है छिद्रेष्वनर्था बहुळी भवन्ति
अर्थात् विपदा आता है तो बहुधा आता है !
अभी अफगान मोगलोँ का अत्याचार कम् नहीँ हुए थे कि
मराठीओँ के शताधिक अश्वटापुओँ से समुचे क्षेत्रमेँ हाहाकार मचगया !!
क्या इतना अत्याचार सहन करते हुए कोई जाति इससे उभर सकता है ?

मोगलोँ के अत्याचारोँ से लोग दाने दाने के महताज् हो गये थे
मोगोलोँ के साथ ओड़िशा मे गरीबी और अकाल दोनोँ आये
थे और अबतक विराजमान है
जिसे मराठाओँ ने अंग्रेजोँ ने और बढ़ादिया था सिर्फ अपने स्वार्थ के लिये !
1704 मेँ आलिवर्दी खाँ बंगाल नवान नियुक्त हुए
स्थानीय नायव नवाव मुर्शिदकुलि खा के साथ उनका विवाद हुआ !
उनदिनोँ खोर्धा पुरी के राजा वीरकिशोरी देव का समर्थ मुर्शिदकुलि खाँ के तरफ था !
विभिन्न वादविवादोँ के बीच कुछ वर्ष बीतगये .....

1742 -43 AD मे वेरा के माराठा शासक का ओड़िशा के मोगलबंदी इलाकोँ पर भारी सैन्योँ के साथ आगमन हुआ !

वे भास्कर पण्डित .आलिसा तथा अन्य मराठा सरदारोँ के साथ यहाँ आये थे !

मूल उद्देश्य था जैसे तैसे बस धन जुटाना !

उनदिनोँ स्थानीय शासकोँ [Odisha] के पास सैन्य संख्या कम था वहीँ यहाँ के शासक तब मोगलोँ के अधिनस्थ करदराजा हुआ करते थे !
मोगलोँ के अत्याचार से त्रस्त
जनता ,
स्थानीय राजाओँ को तो मानती थी परंतु बंग नवाव या दिल्ली सिँहासनारुढ़ सम्राट से घृणा
यहाँ प्रचलित कथा कहावत
जनसृतिओँ मे साफ नजर आता है ।

तो मराठीओँ को बाधा देना असम्भव हो गया था च्युँकि क्षेत्र मेँ आपसी एकता उतना सुदृढ़ नहीँ थे....

राजा का दोष प्रजा पर निकालते हुए मराठी आक्रमणकारी बारबाटी(कटक) दूर्गतक के इलाकोँ मे लुटपाट मचागये और जहाँ जो मिला ले गये !

अगले वर्ष भी यही सब हुआ !
इसबार रघुजी भोँसले और अधिक सैन्य लेकर आये और उनके साथ आये थे विख्यात हबिबुल्ला !!

आलिवर्द्दि खाँ तब मोगलबंदी इलाकोँ [Bihar,bengal,odisha] के मोगलोँ द्वारा नवाव नियुक्त हुए थे....

वे मराठाओँ को रोक पाने मेँ नाकाम् रहे
अतंतः उन्हे मजबुरन नजिम् व भोँसले के साथ संधि करना हुआ !

संधि मे सर्त्त था
कि बंग ,विहार व ओड़िशा के मोगलबंदी इलाकोँ से मराठाओँ को 2400000 रुपया देना होगा !

बंग नवाव इस संधि के सर्त्तोँ को माने नहीँ अतः मराठीओँ ने 1751 मेँ मोगलबंदी इलाकोँ मे फिर हमला करदिया !

राजा जानोजि भोँसले और मीर हविबुला ने इस आक्रमण का नेतृत्व किया !

अब आलिवर्दी खाँ का मराठीओँ के आगे झुकना लगभग तय था....

उसी साल जानोजी और हविवुला ने अपने अपने सैन्योँ के व्यय भार वहन करने हेतु
ओड़िशा को दो हिस्सोँ मे
बाँट दिया था !

उन दिनोँ ओड़िशा से वार्षिक आय 10 लाख के आसपास होते थे....

पट्टासपुर से बरुआँ तक का उत्तरी हिस्सा अफगान हविबुला को मिला -आय 6 लाख !

बरुआँ से मालुद तक के भूखंड पर मराठीओँ का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा -आय 4 लाख !

महानदी निकट चौद्वार छावनी मेँ ये लोग ओड़िशा को चंद मिँटो मेँ बाँट दिए थे !!!

उस ओड़िशा को बाँट गये
थे जिसे एक झंडेतले लाने के
लिये [utkal+kalinga+odra-anga+kosal]
7वीँ सदी मेँ ययाति [जजाती] केशरी को वर्षोँ खटना पड़ा था !

क्रमशः ...
सभार
Prachin utkal
late shri jagbandhu singh

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

खारबेल : मेरी नज़र से

लेखक श्री विश्वकेश त्रिपाठी ने अपने अंग्रेजी पुस्तक "खारबेल द वारियर सिकर" मे
इतिहास व जनसृति को मिलादिया है ।

चलिये ये कथा पहले संक्षेप मे जानलेते है ।

यह कथा भारत के अर्धाधिक भूमि पर विजयी ध्वज फहराचुके
महामेघवाहन ऐरपुत्र खारबेल के जीवनी को आधार बनाकर लिखागया है ।

उन्होने अपने किताब मे शेषभारतीयोँ कि भाँति खारबेल को कलिगेँतर राज्य से बताया है । वे कहते है
खारबेल ने सर्वप्रथम कलिगंविजय किया था ....
संभवतः दक्षिण कि कालचुरी राजा करवर को वे खारबेल मानते होगेँ !

खारबेल ने 12 वर्षोँतक युद्ध अभियान चलाया !
दक्षिणी ,पश्चिमी व उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सोँ को अपने अधीन ले आये थे !
उत्तर पश्चिम भारत मे राज करनेवाले ग्रिक् मुख्य सेनापति ड्रिमेटियस् को मथुरा से ग्रीस् लौटने को मजबुर करदिया था !
दक्षिणी राजा सातकर्णि को भी खारबेल से हारना पड़ा था ।
अन्ततः खारबेल ने अपने 34वेँ वर्ष मे शक्तिशालि मगध पर धावा बोलदिया !
पटालिपुत्र हारा ...सम्राट खारबेल मगधराजकुमारी के कक्ष मे गये और राजकन्या को विवाह प्रस्ताव दे डाला !
उसी कक्ष मे उनके साथ कुछ ऐसा हुआ जिससे उन्होने युद्ध व हिँसा त्यागदिया ! इससे
उनके जीवनशैली मे भारी बदलाव आया और वे योद्धा से साधक बने !
उनकी रानी रतिका ,मंत्री सुमित्र ,मालव्य राजा इंद्रद्युम्न , रानी गुण्डिचा ,मालव्य राज विदूषक विध्यापति ने खारबेल को इस महत् उद्देष्य पूर्ति हेतु
सहयोग किया था !

सारा भारतवर्ष मे भ्रमण करते करते एक दिन खारबेल को नीलगीरी मे पूजे जा रहे शवर देवता जगन्त के बारे मे ज्ञात हुआ !

लेखक यहाँ मूल जनसृति से हटकर लिखते है....

खारबेल ने शवर राजा विश्वाबसु से मालब्य राज विदूषक बिद्यापति से सुसंपर्क स्थापन करवा दिया
और बादमेँ सभी जातिओँ ने शवर देवता जगन्त को जगन्नाथ मानकर उनका पूजा करना शुरुकरदिया जो अबतक बरकरार है ।

जाहिर सी बात हे ... जनसृति इतिहास नहीँ है और जनसृति को भी यदि काटछाँटकर या बढ़ाचढ़ाकर लिखाजाय तो वो अपना एहमियत खो देगा !

यहाँ लेखक ने नीलमाधब को यहाँ जगन्त बताया है !! मूल जनसृति मे कहागया हे नीलमाधब ही जगन्नाथ के आदिरुप हे....
वहीँ मालव्य राज इंद्रद्युम्न....
पुराण प्रशिद्ध सत्ययुगी राजा है
अतः उनका भविष्य मे होना
नित्यान्त अवास्तव लग रहा हे ।
दरसल इंद्रद्युम्न राजशक्ति का धोतक है !

जनसृति के जरीये पण्डितोँ ने परोक्ष रुप से यही कहा है कि
राजशक्ति के बलपर एक शवर देवता को बलपूर्बक हो अथबा जनसमर्थन से हिन्दु देवता मे बदलदिया गया !!

हमारे फेसबुक के एक भाई Santosh kumar mishra जी ने एकबार इसी तरह का एक लेख लिखा था !! जाहिर सी बात हे ...खारबेल के जीवनी पर ये जनसृति प्रशिद्ध है
परंतु जैन पंथ के साधु खारबेल पर अन्य एक जनसृति सुनाते है !!
उनके हिसाब से खारबेल ने प्रौढ़ावस्ता मे सिँहासन त्यागदिया
वे वानप्रस्त आश्रम का पालनपूर्वक जंगलवासी साधुओँ कि रक्षा करने लगे । तब
उनकी पत्नी गर्भवती थी वे कुछ खास दवा लाने मालव्य देश गये और वहाँ उन्हे लुटेरा समझकर कारागार मे डालदिया गया !!
खारबेल का परिवार एक व्यापारी के साथ जंगलोँ से मालव्य देश आया और रहने लगा !
खारबेल कि सज़ा सुनवाईवाले दिन मालव्य राजा ने उन्हे पहचान लिया !
मालव्य राजा ने दण्ड विचार संबन्धिय सभी क्षमता
खारबेल को सोँप दिया और
उधर उनके परिवार को भी खोजा जा रहा था !


इन सब घटनाओँ से अनजान खारबेल के जैष्ठ पुत्र को मालब्य राजकुमारी से प्रेम हो गया
मालव्य राज को पताचला...
उन्होने खारबेल पुत्र को कारवास भेजदिया
और ठिक न्याय विचारवाले
दिन खारबेल व उनके पुत्र एक दुसरे को पहचान गये !!

दोनोँ कथाओँ मे दो समानताएँ है

मालव्य और प्रेमप्रकरण !!

मालव्य संभवतः दक्षिणी राज्य मालव हो सकता है
वहीँ यहाँ प्रेम मतलब एक तरह की आपसी सहमति या संधि भी हो सकता है ।....