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बुधवार, 18 जनवरी 2017

★★★★संगफल★★★★

स्वभाव कवि गंगाधर मेहेर जी कि कविता संगफल का लिपान्तरण ओडिआ तथा अनुवाद रुप....

●लिपान्तरण●

स्वर्ण वर्ण कनिअर पुष्प मनोरम ।
किन्तु तार फळ बिष भिषण बिषम ।।
शिब पाशे रहिबारु संगर कि फळ ।
गउरी गउर कान्ति भुजंग गरळ ।।
सेरुपे धुस्तूर फुल जाह्नबीबरण ।
फळ करि अछि सर्प बिष आकर्षण ।।
एहि रुपे केते लोक शास्त्र संग गुण ।
घेनि होइथान्ति हित भाषणे निपुण ।।
किन्तु कर्मे करिथान्ति अत्यन्त अहित ।
बद्ध होइ नीच दुष्ट प्रबृत्ति सहित ।।

◆ओडिआ लिपि मे....◆

ସ୍ବର୍ଣ୍ଣ ବର୍ଣ୍ଣ କନିଅର ପୁଷ୍ପ ମନୋରମ ।
କିନ୍ତୁ ତାର ଫଳ ବିଷ ଭିଷଣ ବିଷମ ।।
ଶିବ ପାଶେ ରହିବାରୁ ସଙ୍ଗର କି ଫଳ ।
ଗଉରୀ ଗଉର କାନ୍ତି ଭୁଜଙ୍ଗ ଗରଳ ।।
ସେରୂପେ ଧୁସ୍ତୂର ଫୁଲ ଜାହ୍ନବୀବରଣ ।
ଫଳ କରି ଅଛି ସର୍ପ ବିଷ ଆକର୍ଷଣ ।।
ଏହିରୂପେ କେତେ ଲୋକ ଶାସ୍ତ୍ର ସଙ୍ଗ ଗୁଣ ।
ଘେନି ହୋଇଥାନ୍ତି ହିତ ଭାଷଣେ ନିପୁଣ ।।
କିନ୍ତୁ କର୍ମେ କରିଥାନ୍ତି ଅତ୍ଯନ୍ତ ଅହିତ  ।
ବଦ୍ଧ ହୋଇ ନୀଚ ଦୁଷ୍ଟ ପ୍ରବୃତ୍ତି ସହିତ ।।

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             ★अनुवाद★

स्वर्ण वर्ण कर्णिकार पुष्प मनोरम ।

किन्तु इसका फल विष भिषण विषम ।।

शिव के पास रहने से संग का देखो फल ।

गउरी गउर कान्ति भूजंग गरल ।।

उसीतरह धुस्तूर पुष्प जाह्नवीवरण ।

फल कर रहा सर्प विष आकर्षण ।।

इसी भांति कुछ लोग शास्त्र संग गुण ।

पाकर होते हित भाषणे निपुण ।।

किन्तु कर्म करचुके च्युंकि अत्यन्त अहित ।

बद्ध हो नीच दुष्ट प्रवृत्ति सहित.... ।।

गंगाधर मेहर जी कि रचना....

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#सम्बलपुर के #बरपाली मे कवि गंगाधर मेहरजी का जन्म एक #तन्ती यानी #जुलाह परिवार मे हुआ था....

उन्होंने अपने जीवनकाल मे #ओडिआ #साहित्य को अपना जो अवदान दिया वह सदा हमारे लिए
अमूल्य धरोहर
बना रहेगा....

जातिवादीओं ने भारतवर्ष मे जुलाह...
तन्ती लोगों को बुद्धिहीन बताकरके एक समय खुब बदनाम किया था...
उनपर प्रचलित कई लोककथाएं तथा लोकोक्ति इसबात को साबित भी करता है...

इसलिए उत्तरभारतमे ज्यादातर जुलाह,

मुल्लों के संस्पर्श मे आकै कालान्तर मे मुस्लिम बनगये ओडिशा मे कपडा बनानेवाली तन्ती आज भी हिन्दु ही है....

क्यों ??
च्युंकि गंगाधर मेहेर जैसे महान आत्माओं ने ऐसा होने नहीं दिया था ....
इस कविता मे यही संगफल कि बात कवि कहगये है

बुधवार, 11 जनवरी 2017

....नमस्ते प्रभु जगन्नाथ.....

नमस्ते प्रभु जगन्नाथ ।
अनाथ लोगों के नाथ ।।
नमस्ते प्रभु वासुदेव ।
भक्त जनों के बंधु तव ।।
नमस्ते प्रभु हृषिकेश ।
भक्तजनों के विश्वास ।।
नमस्ते प्रभु विश्वरुपी ।
सकल हृदे हो तुम ही ।।
तुम ही सृष्ठि स्थिति लय करते ।
पुनः भव सब संहारते ।।
अशेष कोटि वसुन्धरा ।
तुम्हारे गर्भ मे हे भरा ।।
चौदह ब्रह्माण्ड है बना ।
ये सर्व तुम्हारी रचना ।।
तुम रह्मा रुद्र विष्णु तुम ही ।
तुम बिनु अन्य गति नाही ।।
सृष्टि तुम्हारी क्रीडागृह ।
सर्वपिता होकर भी निर्मोह ।।
तुम्हारा श्वास है मरुत ।
देव हुए है तहुँ जात ।।
तुम ही हो अग्नी देव इन्द्र ।
नयनुँ तव सूर्य चन्द्र जात ।।
भूजा से अनन्त मारुति ।
कण्ठ से जन्मी सरस्वती ।।
सदा चंचल निद्रा नाही ।
यह रुपे शून्ये होते हो तुम्ही ।।
अशेष तुम्हारी महिमा ।
कोई न जानता गुणसीमा ।।
तेरे नाम करता रहे जो लय ।
करोड़ों जन्मों का पाप हो क्षय ।।
तुम्हारा नाम ले जो मिल जाय सिद्धि ।
दूर हो जाते रोग शोक आदि ।।
आरत भंजन तुम्हारा वह बाना ।
आतंग(विपत्ति) काले वज्र सेह्ना (सन्नाह,कवच) ।।
होए हो दश अवतार ।
उतारे धरती के भार ।।
दुष्ट निवारि संत पालते हो।
तुम नाथ परम दयालु ।।
तुम हो दरिद्रों के धन ।
तुमरे चरणों मे रहे मेरा मन ।।
सती युवतियों के मनमें ।
उनके पति होते हे जैसे ।।
उसी भांति मेरा यह मन ।
तुम्हारे चरणों मे रहे सदा भगवन ।।
कहे दास जगन्नाथ ।
कमल चरणों मे आश..।।

द्रष्टव्य :- प्रस्तुत भक्ति रचना "ନମସ୍ତେ ପ୍ରଭୂ ଜଗନ୍ନାଥ" मूलतः ओडिआ भाषा मे अतिवडी जगन्नाथ दासजी ने लिखा था ।
मैने मात्र दैव प्रेरणा से इसका हिन्दी अनुवाद किया है....