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बुधवार, 2 मार्च 2016

<<<<<< खण्डायत >>>>>>



"खण्डाय़त" जाति है
स्वाभिमानी ओड़िआओँ कि....

भारत मे यह सैनिक कृषक जाति "सर्वजाति समन्वयता" का ध्वजारोहण कर रहा है ....

पाइकवीरोँ मे सबसे आगे रहकर लढ़नेवाले साहसी वीर थे ये
खण्डायत ....

लेकिन अफसोस...

यहाँ बाकी बिरादरी के लोग
जब थोड़ा बहत पढ़ लेते है
उनके मनमे,
खण्डायतोँ को लेकर के कहीँ ना कहीँ द्वेष भरा हुआ देखा गया है....

ऐसे लोग अकसर् उन अंग्रेजी किताबोँ को पढ़कर बड़े हुए होते है
जिन्हे
कुछ Odia/odisha विद्वेषी लेखकोँ ने
व्यग्यंत्मक शैली मे लिखा हुआ होता है ।

----खण्डायतोँ के प्रति द्वेष क्युँ----

ओड़िशा मे मराठाराज के समय कुछ खण्डायतोँ ने मराठाराजाओँ के कहने पर लुट और अत्याचार उत्पात मचाया था

इसलिये
हमारे समाज मे बाकी संप्रदायोँ का,
खण्डायतोँ के प्रति द्वेष होना आम बात है ।

<<<खण्डायत शब्द का शब्दार्थ>>>

ओड़िआ पूर्णचंद्र भाषाकोष रचयिता
श्री
गोपालचंद्र प्रहराज जी
"खण्डायत-खण्डाएत्" शब्द के बारे मे अपने Odia dictionary
लिखते है


"ये किशानोँ का एक संप्रदाय है
जो युद्धकला मे प्रवीण हुआ करते है'

खण्डायत शब्द का 2 प्रमुख अर्थ है

1.खण्ड - भूमिखण्ड के अधिकारी [जमिदारी]
खण्ड+आयत =खण्डायत]

2.खण्डा या तलवार समान हात
या युँ कहेँ तो वहतर कि
खण्डा सदैव जिनके हातोँ मे रहते हो"


लेकिन जब हम इस शब्द का पोस्टमर्टम् करते है हमेँ मिलता है

संस्कृत भाषा का
"खण्ड् धातु"

अब खण्ड् धातु के कई अर्थ होतेँ है....


जैसे फाड़कर टुकड़ा टुकड़ा करना [खंड खंडकरना]
ठगना
वाधा देना
निश्फल करना
विनाश करना
पूर्णतः पराजीत करना
अवज्ञा करना
निराश करना आदि....[Purnachandra bhasakosha page 1514]


अब खण्ड् धातु के ये सभी समानार्थवादी शब्दोँ को मिलाकर
एक वाक्य गठन किए जाय
तो वो कुछ ऐसा बनेगा



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शत्रृओँ के सेना को चिरफाड़ने को सक्षम,

दुशमनोँ को अपने चालाकि से ठगदेनेवाले,

शत्रृओँ के अनचाहेँ आदेशोँ को अवज्ञा कर उन्हे निराश

पराजीत व विनाश करदेनेवाले
उत्कल भूखण्डमे सामर्थ्यवान
सिर्फ और सिर्फ खण्डायत हीँ हो सकते है !!!

हाँ कुछ लोगोँ को ये अतिशयोक्ति लगे
लेकिन जैसा कि खण्डायतोँ का
गौरवमय इतिहास रहा है
इसे नकारा नहीँ जा सकता !
----

खण्डायतोँ के बारे मे
ऐतिहासिक जगबंधु सिँह जी अपने prachin utkal पुस्तक मे
लिखते है

"इन लोगोँ को
स्वयंको चषा या किशान कहने मे शर्म आती थी
अतः खुदको खण्डाएत कहकर दुसरोँ से परिचय करते रहे है'

"भले इनमे मक्खी तक मार पाने कि क्षमता न हो
लेकिन आज भी इन्हे कोई ललकार के देख लेँ
मुछ्छोँ पर ताव देइके
"क्या"
कहकर मैदान मे लढ़ने को कुद पड़ेगेँ'
क्षत्रिय भिन्न किसी मे भी ऐसी प्रवृत्ति मिलपाना
मुस्किल है ।"

मैनेँ मेरे विरादरी के ज्यादातर लोगोँ को अपना परिचय देते समय खुदको
खण्डाएत चषा के तौर पर परिचय देते हुए देखा है

अतः ऐतिहासिक महोदय का ये कहना कि
खण्डायत खुदको चषा या किसान कहने मे शर्म महशुश करते थे या करते है
मैँ सहमत नहीँ हुँ




ओड़िशा मे खण्डायतोँ पर कई प्रशिद्ध
जनसृति प्रचलन मे है


"काँचि अभियान"
इसी तरह के जनसृतिओँ मे से एक है

संक्षेप मे कथा :-

Puri पुरुषोत्तम देव राजा को
काँची राजकन्या पद्मावती से प्रेम हो जाता है
वे अपनी मन कि बात
काँचि नरेश के पास पत्र मे
लिख भेजते है ।
काँचि नरेश पारिवारिक विवाह संबन्ध को राजी हो जाते
और अपने भावी जामाता का
राज्य देखने उत्कल भ्रमण हेतु
आते है !

उनदिनोँ रथयात्रा था
स्थानीय राजाको भगवनजी के रथ मे रथयात्राको झाड़ु लगने का रस्म होता है
काँचि राजा उसी दिन ही पुरी सहर आ पहँचे
और राजा पुरुषोत्तम को चाँडाल कर्म करते
देख
उनका वहीँ भर्त्सना किया
और
काँचि लौट गये...

यहाँ न केवल राजा का वरन
जगन्नाथ संस्कृति का भी अपमान हो गया

राजा ने काँचि पर धाब्बा बोल दिया
लेकिन परास्त हो लौँटे

फिर जगन्नाथ पुरी मे
श्री जगन्नाथ भगवान के सम्मुख
घँटो साष्टागं योग मे पड़े रहे ।

भक्त के भक्ति से प्रीत हो भगवन ने उन्हे पुनः काँचि पर युद्ध अभियान करने को कहा
औ कहा कि मेँ तुम्हारे साथ हुँ ।

सेना पुनः काँचि पर विजय पाने को उत्कल से काँचि कि ओर चलपड़ा...

कहते है श्रीकृष्ण बलराम भी इस युद्ध मे सामिल होने
काले व सफेद घोड़े मे चढ़कर आगे बढ़े जा रहे थे

रस्ते मे एक ग्वाल कन्या चली जा रही थी

उसके मटके मे छास था
और अब प्रभु श्रीकृष्ण को प्यास लगा
[ये भी लीला ही था]
दोनोँ भाई पेट भर भर के छास पि गये
लेकिन ग्वालन् को देँ क्या
धन तो था
नहीँ
सो माणिक ग्वालन् को जगन्नाथ जी ने अपना रत्न खचित अंगुठि दे कर कहा

ये रखो आगे राजा आ रहे है
उन्हे दिखाईके अपना प्राप्य ले लेना ।
और इतना कहकर वे दोनोँ भाई अपना अपना घोड़ा आगे दौडा दिए ।

ग्वालन् माणिक से जब ये रत्न अंगुठि राजा को प्राप्त हुए
राजा और उसके सेना का साहस दुगना हो गया

काँचि का युद्ध चल रहा था

लेकिन टक्कर काँटे कि
थि

देवी तारिणी माता का आशिर्वाद से काँचि राजा अजेय था
च्युकि उन्हे यह बरदान प्राप्त था कि
जबतक काँचि मे
देवी तारिणी रहेगी तबतक
काँचि जीतपाना नामुनकिन है

उत्कलीय सेना मे भीम नामका
एक खंडायत सैनिक था

उसने देवी को प्रसन्न करलिया
माता तारिणी ने कहा

मेँ तेरे साथ चलुगीँ
जहाँतक तु चलेगा
लेकिन ध्यान रहे
जहाँ तेरे कदम् रुके
मैँ वहीँ ठहर जाउगीँ

भीम् देवी तारिणी को केन्दुझर अपने गाँव ले जा रहा था
लेकिन एक जगह उसे मानो ऐसा लगा कि देवी नहीँ चल रही
च्युँकि पाँजेव का शब्द अब सुनाई दे नहीँ रहा था

वो वहीँ रुक गया
और पिछे मुड़कर देखा तो
देवी पत्थर बनगयी है

ये जगह आज घटगाँ तारिणी पीठ के नाम से प्रशिद्ध है ।

क्रमशः.....