मादलापांजी नामक उत्कलीय ग्रँथ से पताचलता हे की आखरी गंगवंशी राजा अकटाअवटा भानु के राजत्वकाल मेँ अकवर के दूत ने ओड़िशा से मित्रता का हाथ बढ़ाया था । परंतु कपिलेन्द्रदेवजी के राजत्वकाल मेँ चौतरफा भिषण युद्ध छिड़ा था ।
दक्षिण भारतीय मुसलमान च्युँकि कर्णाट व तेलगांना राज्य के खिलाफ लम्बे समय से विद्रोहरत्त थे उन्होने ओड़िशा पर ज्यादा तबज्जोँ नहीँ दिया ।
मुस्लिम ऐतिहासिकोँ कि माने तो ओड़िशा राजा कपिलेन्द्र देव के वजह से पठानोँ ने ओड़िशा पर फिर हमला किया था जबकी ये बात वो बदलनहीँ सकते कि उनके पूर्वज ही प्रथम आक्रमणकारी था च्युँकि यही संसारी सत्य है !
हुमायुन शाह बाहमन के राजत्वकाल मेँ तेलेगाँना क्षेत्र के लोगोँ पर पठानोँ का अत्याचार सोच से परे है । अब तेलेगाँ लोग
अत्याचार से प्रताड़ित हो ओड़िशा मेँ आनेलगे ।
जब कपिलेन्द्र देवजी को ये बात ज्ञात हुआ उन्होने तुरंत कारवाई करते हुए अपने सैनिक व हाती भेजकर तेलगाँना को मदद पहचाँई ।
दोनोँ राज्य कि सैन्योँ ने मिलकर मुसलमानोँ को पिछे खदेड़ दिया था ।
हुमायुन का पुत्र निजाम शाह के राजत्व काल मेँ फिर तेलेगांना पर हमला हुआ । मुस्लिम सैन्य बड़े जोश के साथ आगे बढ़रहे थे लेकिन जब उन्हे पताचला कि उत्कल राजा आगे उनसे लढ़ने हेतु तैयार बैठे है वो सब निराश हो लौट गये ।
राजमेहेन्द्र से कंटापाली तक का क्षेत्र तब #उडिया नामसे जानाजाता था । वहाँ का राजा 1417 मेँ मुसलमानोँ से जा मिला । लेकिन हिम्ब राज्य का राजा महम्मद शाह ने उसी कि राज्य पर कब्जा कर ली ।
उड़िया राजा का जब ज्ञानोदय हुआ तो वो फिर उत्कल राजपरिवार से जा मिले परंतु तबतक कपिलेन्द्र देव बृद्ध हो गये थे तथा उनका कोई शक्तिशाली वंशज भी न था तो
अहमन शाह से हारकर उससे संधि करना पड़ा । पर अहमन शाह के मन मेँ प्रतिहिँसा का आग सुलग रहा था । उसने अपने 20000 कातिल हैवान सैनिकोँ को लेकर ओड़िशा/उत्कल पर हमला करदिया और लुटपाट करते हुए राजधानी तक आ पहँचा । उसे हालाँकि इस युद्ध मेँ जीत मिली परंतु प्रतिकूल जलवायु व खाद्याभाव आदि समस्याओँ के कारण वो बिना राजधानी लुटे ही लौटगया ।
पुरुषोत्तम देव के राजत्व काल मेँ मुसलमानोँ ने उत्तरी दिशा से #कटक वारबाटी दुर्ग पर हमला किया । वहाँ के राजा अनन्त सामन्त सिँहार कटक दुर्ग को बचा न सके और गुप्त रुप से सारंगगढ़ मेँ रहने लगे । मुसलमानोँ ने तय कर लिया था कि वो अब #पुरी व #जगन्नाथ जी को फतह करके ही लौटेगेँ ।
राजा प्रतापरुद्र देव का वो राजत्वकाल था....बुढ़े प्रतापरुद्र ने भगवान जी को समंदर बालु मेँ छुपाने के लिये कहा और खुद शत्रुऔँ से संधि करने पहँचे ।
संधी मेँ देवस्थल से दूर रहना का प्रस्ताव मुसलमानोँ ने मानलिया व लौट गये ।
1531 मे प्रतापरुद्र देव भी चलवसे और उनके साथ साथ उत्कल भाग्यरवि भी डुबगया
क्रमशः..,.
ये लेख prachin utkal ओड़िआ किताब दुसरे भाग से प्रेरित है
मूल लेखक जगबंधु सिँह है
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