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गुरुवार, 11 अगस्त 2016

अमृतमय

अमृतमय
–स्वभाव कवि गंगाधर मेहेर [ସ୍ବଭାବ କବି ଗଙ୍ଗାଧର ମେହେର]

नव विकशित पुष्प गंध
नव सरस कविता छन्द
नव विहग मधुर तान
शिशु सरल तरल गान
नव प्रफुल्ल कमल कानन
नव सुकुमार शिशु आनन्द
अमृतमय अमृत रय
भसाए लेता है जीवन

धीर चकित शीतल वात
चिर ललित कुमुद नाथ
क्षीर धवल चंद्रिका जाल
नीर दीन दक्ष घनमाल
मृदु मधुर आलोक उषार
नव पल्लव पतित तुषार
अमृत मय अमृत रय
निम्मजित दिए संसार

चिक मिक करते तारा
टप टप जलधर धारा
तमनाशने धावित धष्ठि
तम मुक्त अवनी हृष्ट
गिरिगर्भ प्रसूत निर्झर
दूर लम्फित प्रपात झर्झर
अमृतमय अमृतरय
जीवन कर रहा जर्जर

मैँ तो अमृत सागर विन्दु
नभे उठा था त्यागे सिन्धु
गिरा मिला फिर अमृत धारे
गति कर रहा वह अकुपारे
पथ मे शुखा गर पाप ताप से
हो शिशिर फिर पतित होना है धरा मे
अमृतमय अमृतरय
मुझे मिलना ही एक दिन सागर मे

Origional odia poem

ଅମୃତମୟ
– ସ୍ବଭାବ କବି ଗଙ୍ଗାଧର ମେହେର
ନବ ବିକଶିତ ଫୁଲ ଗନ୍ଧ
ନବ ସରସ କବିତା ଛନ୍ଦ
ବନ ବିହଗ ମଧୁର ତାନ
ଶିଶୁ ସରଳ ତରଳ ଗାନ
ନବ ପ୍ରଫୁଲ୍ଲ କମଳ କାନନ
ନବ ସୁକୁମାର ଶିଶୁ ଆନନ୍ଦ
ଅମୃତମୟ ଅମୃତ ରୟ
ଭସାଇ ନେଉଛି ଜୀବନ୤
ଧୀର ଚକିତ ଶୀତଳ ବାତ
ଚିର ଲଳିତ କୁମୁଦ ନାଥ
କ୍ଷୀର ଧବଳ ଚନ୍ଦ୍ରିକା ଜାଲ
ନୀର ଦାନ ଦକ୍ଷ ଘନମାଳ
ମୃଦୁ ମଧୁର ଆଲୋକ ଉଷାର
ନବ ପଲ୍ଲବ ପତିତ ତୁଷାର
ଅମୃତମୟ ଅମୃତ ରୟ
ମଜ୍ଜାଇ ଦେଉଛି ସଂସାର୤
ମିଟି ମିଟି ଜକ ଜକ ତାରା
ଟପ ଟପ ଜଳଧର ଧାରା
ତମନାଶନେ ଧାବିତ ଧଷ୍ଣି
ତମ ମୁକତ ଅବନୀ ହୃଷ୍ଟ
ଗିରିଗରଭ ପ୍ରସୂତ ନିର୍ଝର
ଦୂର ଲମ୍ଫିତ ପ୍ରପାତ ଝର୍ଝର
ଅମୃତମୟ ଅମୃତରୟ
ଜୀବନ କରୁଛି ଜର୍ଜର୤
ମୁଁ ତ ଅମୃତ ସାଗର ବିନ୍ଦୁ
ନଭେ ଉଠିଥିଲି ତେଜି ସିନ୍ଧୁ
ଖସି ମିଶିଛି ଅମୃତ ଧାରେ
ଗତି କରୁଛି ସେ ଅକୂପାରେ
ପଥେ ଶୁଖିଗଲେ ପାପ ତାପରେ
ହୋଇ ଶିଶିର ଖସିବି ତା ପରେ
ଅମୃତମୟ ଅମୃତରୟ
ସହିତ ମିଶିବି ସାଗରେ୤

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