17वीं शताब्दी में ओडिशा राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था। मुगल शासन का प्रभाव ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में था। 1633 में अंग्रेज व्यापारियों को मुगल सम्राट शाहजहां और ओडिशा के सूबेदार से व्यापार की अनुमति मिली थी। इस समय ओडिशा के गजपति बलभद्र देव थे, जिनके बाद उनके ताबेदार पुत्र राजा नीलांबर रायसिंह भ्रमरबर ने ढेंकानाल का शासन संभाला। 1650 में औरंगजेब ने बलपूर्वक दिल्ली का सिंहासन हासिल किया, जिसने ओडिशा में मुगल शासन के प्रभाव को और जटिल किया। इस कठिन समय में राजा नीलांबर ने ढेंकानाल का शासन संभाला और मुगलों व अंग्रेजों को अपने राज्य में प्रवेश करने से रोका।
राजा नीलांबर एक दूरदर्शी और चतुर शासक थे। उन्होंने ढेंकानाल में एक मजबूत सेना का गठन किया, जिसमें गजारोही, अश्वारोही, पैदल सैनिक, नागा और तेलंगा सैनिक शामिल थे। यह सेना भीमनगरी, हदगड़, करमूल, नुआगड़, डमरजा कटक, गोविंदपुर आदि किलों में सतर्क रहकर बाहरी शत्रुओं के आक्रमण का प्रतिरोध करती थी। राजा नीलांबर ने युद्ध के माध्यम से राज्य की सीमाओं का विस्तार करने की कोशिश न करते हुए आंतरिक व्यवस्था और सीमा सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया। जायगीरी पैक सैनिक युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहते थे, जिसने उनके शासन की स्थिरता को सुनिश्चित किया। उनके शासनकाल में ढेंकानाल में कोई अशांति नहीं हुई, जो उनके कुशल शासन कौशल को दर्शाता है।
राजा नीलांबर नृसिंह के परम भक्त थे। उन्होंने अपने राजगुरु के निर्देश पर पारिमल प्रगना की ब्राह्मणी नदी के तट पर कंतियो गांव में एक वैष्णव मठ की स्थापना की, जिसे ढेंकानाल का राजगुरुगादी के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि महंत, महापुरुष और हाकिम आदि के आसन या बैठने के स्थान को 'गादी' कहा जाता है। पवित्र ग्रंथों आदि को एकत्र रखने के स्थान को भी गादी कहा जाता है। महापुरुषों की समाधि को भी गादी कहा जाता है। शासकों के पद या अधिकार को भी गादी कहा जाता है। इसी तरह, महंत या महापुरुषों के मठ को भी गादी कहा जाता है। इसलिए, ढेंकानाल के कंतियो पुटसाही ग्राम पंचायत में दो गादियां हैं: महिमागादी-जका और राजगुरुगादी-कंतियो।
राजा नीलांबर ने कई ब्राह्मण शासनों की स्थापना की। उन्होंने पुरी क्षेत्र से मुसलमानों के अत्याचार से त्रस्त होकर आए श्रोत्रिय ब्राह्मणों को आश्रय दिया। उन्हें उचित सम्मान देकर उन्होंने स्वराजधानी से लगभग दस किलोमीटर दूर 'नीलांबर पुर' नामक शासन की स्थापना की और निष्कर लाखराज सनद प्रदान की। यह उनकी धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का एक उज्ज्वल उदाहरण है।
इसके साथ ही, राजा नीलांबर शैव और वैष्णव धर्म के समन्वयकर्ता थे। उन्होंने ढेंकानाल क्षेत्र में कई शिवलिंगों की स्थापना की और कपिलास, कुआंलो और नागना पीठों के प्रबंधन के लिए सुबनदोबस्त किया। ब्राह्मणी अववाहिका में स्थित अन्य शैव पीठों की सेवा और पूजा के लिए भी वे प्रयासरत रहे। यह सिद्ध करता है कि उनके शासनकाल में ढेंकानाल में एक समन्वयात्मक सांस्कृतिक परिवेश विकसित हुआ था।
राजा नीलांबर के शासनकाल में ओडिशा में राजनीतिक अनिश्चितता व्याप्त थी। 1658 में औरंगजेब के दिल्ली सिंहासन पर चढ़ने से ओडिशा में मुगल शासन का प्रभाव और बढ़ गया। इस परिप्रेक्ष्य में राजा नीलांबर ने अत्यंत सतर्कता के साथ शासन कार्य किया। उन्होंने पड़ोसी राजाओं और जमींदारों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे। हदगड़ में स्थापित सामंत वंश के बलराम सामंत के साथ उनकी आत्मीयता थी, जिसने उन्हें ढेंकानाल की सेना को मजबूत करने में मदद की। 1659 में खोर्द्धा के गजपति मुकुंददेव के साथ मित्रता स्थापित कर उन्होंने ढेंकानाल की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया। मयूरभंज और केनझर राज्यों पर मुगलों की लालची नजर थी, फिर भी ढेंकानाल स्वतंत्र रहा।
राजा नीलांबर रायसिंह भ्रमरबर का शासनकाल ढेंकानाल के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। उनका चतुर शासन, मजबूत सेना, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय ने उन्हें एक महान शासक के रूप में स्थापित किया। 1680 में उनके स्वर्गारोहण के बाद भी उनका योगदान ओडिशा के इतिहास में अमर है। उनके शासनकाल ने ढेंकानाल की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा में एक उल्लेखनीय अध्याय रचा।
**स्रोत:**
1. पूर्णचंद्र भाषाकोश: श्री गोपाल चंद्र प्रहराज
2. ढेंकानाल का ऐतिह्य और संस्कृति: पंडित अंतर्यामी मिश्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें