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सोमवार, 4 अगस्त 2025

ओडिशा के इतिहास का सबसे कलंकित अध्याय: एक हिंदू राजपूत ने जब श्रीमंदिर लुटा था

जब राजपूतों की बात उठती है, तो पूरे भारत के लोग कहते हैं कि वे महान देशभक्त, वीर और विवेकी थे। लेकिन जैसे-जैसे मुगलों ने उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व फैलाना शुरू किया, कई राजपूत भी उनके गुलाम बनने लगे।

ऐसे ही एक गुलाम राजपूत, केशो दास, के कारण ओडिशा और श्रीमंदिर सबसे अधिक लूटा और अपमानित हुआ।

मुगल सम्राट जहांगीर ने ओडिशा के पहले मुगल सूबेदार के रूप में हासिम खां (1607-1611 ई.) को नियुक्त किया था। इसके बाद मुगल बादशाह को संतुष्ट करने के लिए कटक जिले के जागीरदार और मुगल सेनापति केशो दास मारु ने श्रीजगन्नाथ मंदिर को लूट लिया।

यह जघन्य हमला आषाढ़ मास में विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा के आयोजन के समय श्रीक्षेत्र में हुआ था। श्रीगुंडिचा मंदिर में श्रीजगन्नाथ चतुर्द्धामूर्ति रथयात्रा के कारण विराजमान थे। उस समय सभी का ध्यान श्रीगुंडिचा मंदिर पर था। तभी केशो दास मारु ने बड़ी संख्या में राजपूत सैनिकों के साथ श्रीजगन्नाथ मंदिर में दर्शन के बहाने प्रवेश किया और रत्नभंडार को लूट लिया।

हिंदू राजपूत होने के बावजूद केशो दास मारु एक मुस्लिम गुलाम बन चुका था, जिसके कारण उसमें हिंदू धर्म के प्रति कोई आस्था नहीं बची थी। उसकी राजपूत सेना ने सेवक ब्राह्मणों पर अकथनीय अत्याचार किए और मंदिर से करोड़ों रुपये मूल्य के धन-रत्न लूट लिए।

गजपति पुरुषोत्तम देव (1600-1621 ई.) को इस लूट की खबर मिलने पर उन्होंने रथों और बड़ी संख्या में पैक सैनिकों की सहायता से मंदिर के चारों ओर रथों को खड़ा कर श्रीमंदिर को घेर लिया। खोर्धा गजपति के प्रचंड हमले से भयभीत केशो दास मारु ने कोई और उपाय न पाकर मंदिर और उसके परिसर में मौजूद छत, त्रास, आढे़णी, बैरख, और चांदुआ को फाड़ दिया। उसने मंदिर परिसर में मौजूद बांस के अगले हिस्से में कपड़ा लपेटकर उसमें तेल और घी डालकर आग लगा दी और मंदिर परिसर के बाहर चारों ओर खड़े रथों पर आग की लपटें फेंक दीं।

केशो दास के पराजित होने की खबर सुनकर बंगाल के सूबेदार इस्लाम खां ने खूजा ताहिर मोहम्मद बक्ति नामक सेनापति को सहायता के लिए ओडिशा भेजा। उसने ओडिशा के सूबेदार हासिम खां के साथ मिलकर केशो दास की मदद की। लेकिन गजपति की हार देखकर बक्ति ने उन्हें युद्ध बंद कर केशो दास के साथ संधि करने की सलाह दी।

गजपति राजा के सामने निम्नलिखित संधि की शर्तें रखी गईं:

(क) खोर्धा गजपति महाराजा पुरुषोत्तम देव अपनी पुत्री राजजमा कनकप्रतिमा देवी का विवाह जहांगीर से करेंगे।  
(ख) 9.3 लाख रुपये मुगल बादशाह को पेशकश के रूप में दिए जाएंगे।  
(ग) अपनी भगिनी का विवाह केशो दास के साथ कराएंगे।  
(घ) युद्ध में हुए नुकसान के लिए केशो दास को एक लाख रुपये क्षतिपूर्ति दी जाएगी।

श्रीमंदिर और तत्कालीन उत्कल देश को बचाने के लिए गजपति राजा को इन शर्तों पर सहमत होने के लिए मजबूर होना पड़ा। गुलाम हिंदू-विरोधी राजपूत केशो दास ने ओडिशा से एक बलवान हाथी और पांच मादा हाथियों को भी ले लिया। पिशाच जहांगीर को उपहार देने पर जहांगीर अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने केशो दास को 4 हजार अश्वारोही सेना का सेनापति बनाया, साथ ही एक पताका, मूल्यवान पोशाक, मणिमुक्ता-जड़ित खंजर, कमरपट्टी, एक तेज गति वाला घोड़ा, और रत्न-जड़ित जीन पुरस्कार के रूप में दी।

संधि के दौरान राजजमा कनकप्रतिमा देवी घोड़े पर सवार होकर चतुराई से नरसिंहपुर चली गईं और बाद में उन्होंने संबलपुर के राजा से विवाह कर लिया।

इस युद्ध में मान-सम्मान और धन-संपत्ति खोकर राजा पुरुषोत्तम देव दुखी मन से खोर्धा राज्य छोड़कर राजमहेंद्रा चले गए। एक हिंदू होने के बावजूद हिंदू-विरोधी नीति अपनाकर केशो दास मारु ने श्रीजगन्नाथ मंदिर को लूटा, जिसका विस्तृत वर्णन ओडिशा की मादलापांजी में किया गया है।

ओडिशा पर हमले से मिले इस अनुचित लाभ को देखकर गुलाम राजपूत और उनके मालिक मुल्ला उत्तर भारतीय बार-बार ओडिशा पर हमला करने से नहीं हिचकिचाए।

हासिम खां के बाद 1611 में एक अन्य राजपूत, कल्याण मल, ओडिशा का सूबेदार बनकर आया। लेकिन उसने दायित्व संभालते ही हमले शुरू कर दिए। इस दौरान उसने भारी मात्रा में सोना, चांदी, और संपत्ति लूट ली। 1617 में मकरम खां ने मंदिर में प्रवेश कर मनमानी संपत्ति लूटी। पुरी पर हमले के कारण भगवान जगन्नाथ को बाणपुर के गजपदा में गुप्त रूप से रखा गया। उसने भी बहुत सारी लूटी हुई संपत्ति ले ली।

आज उत्तर भारत में बहुत से लोग हिंदू-हिंदू चिल्लाते हैं, लेकिन यह अत्यंत कटु और हलाहल विष के समान सत्य है कि उनके ही पूर्वजों ने मुगल शासनकाल में मुस्लिम शासकों के चरण-चाटुकार बनकर हिंदू राज्य ओडिशा और हिंदुओं के परम आराध्य श्रीजगन्नाथ के मंदिर को अनुचित क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

(उक्त ऐतिहासिक तथ्य महाविद्यालय में पढ़ाए जाने वाली एक इतिहास पुस्तक से लिया गया है)

जन्मपाणी : जीवन का पहला स्पर्श

ओड़िया भाषा और संस्कृति में 'जन्मपाणी' शब्द एक अद्वितीय सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अर्थ रखता है। यह शब्द दो संदर्भों में प्रयुक्त होता है: वृक्षारोपण के समय पहला जलदान और नवजात शिशु का पहला स्नान। ये दोनों प्रसंग जीवन की शुरुआत और पुनर्जनन के प्रतीक के रूप में देखे जाते हैं। ओडिशा की सांस्कृतिक परंपरा में यह शब्द पेड़ और शिशु दोनों के लिए जीवनदायी शक्ति का प्रतीक है।

वृक्षारोपण को एक पवित्र कार्य माना जाता है। जब किसी पेड़ का पौधा एक स्थान से लाकर दूसरे स्थान पर रोपा जाता है, तो उसकी जड़ों के साथ लगी मिट्टी को 'जन्ममाटी' कहा जाता है। यह मिट्टी पेड़ की मातृभूमि के समान है, जहां उसकी जड़ें पहली बार स्थापित होती हैं। रोपण के बाद पेड़ को दिया जाने वाला पहला जल ओड़िया भाषा में 'जन्मपाणी' कहलाता है। यह जल पेड़ को नए परिवेश में जीवन प्रदान करता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, जन्मपाणी पेड़ की वृद्धि और जीवित रहने के लिए अत्यंत आवश्यक है। जब पेड़ को उखाड़ा जाता है, तो उसकी जड़ें अर्धमृत अवस्था में पहुंच जाती हैं, क्योंकि मिट्टी से अलग होने के कारण जल और पोषक तत्वों का अवशोषण बाधित होता है। नए स्थान पर पौधा लगाने के बाद उसकी जड़ों को दिया जाने वाला जन्मपाणी जड़ों को नमी प्रदान कर मिट्टी से संबंध स्थापित करने में सहायता करता है। नए रोपे गए पेड़ की जड़ों को जन्मपाणी देने से जड़ों में मौजूद माइकोराइजा जीवाणु सक्रिय होते हैं, जो पेड़ के पोषक तत्वों के अवशोषण में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, जन्मपाणी मिट्टी में मौजूद हवा के रिक्त स्थान को कम कर जड़ों को स्थिर करता है, जो पेड़ की स्थायित्व के लिए जरूरी है।

ओड़िया संस्कृति में जन्मपाणी को पुनर्जनन का प्रतीक माना जाता है। जब एक पेड़ को एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर रोपा जाता है, तो वह एक नया जीवन शुरू करता है। यह प्रक्रिया पेड़ के पुनर्जनन के समान है और जन्मपाणी इस नए जीवन का पहला स्पर्श बनता है।
ओड़िया संस्कृति में नवजात शिशु के पहले स्नान को भी 'जन्मपाणी' कहा जाता है। पूर्णचंद्र भाषाकोश के अनुसार, यह स्नान शिशु के जीवन का पहला सांस्कृतिक रीति माना जाता है। पहले ओडिशा में लोग प्रायः उठियारी के दिन बच्चों को पहला स्नान कराते थे। कुछ लोग नवजात शिशु के अस्वस्थ होने पर बारआत या एकईशिया के समय पहला स्नान कराते थे। यह स्नान केवल शारीरिक शुद्धता के लिए नहीं, बल्कि शिशु का नए जीवन में स्वागत करने का एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, नवजात शिशु का पहला स्नान उसके स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। गर्भाशय में रहने के दौरान शिशु एक सुरक्षित और जीवाणुमुक्त परिवेश में होता है। जन्म के बाद वह बाहरी परिवेश के संपर्क में आता है, जहां जीवाणु और अन्य हानिकारक तत्व उसके स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। पहला स्नान शिशु के शरीर से जन्म के समय लगे रक्त, वर्निक्स (vernix), और अन्य अशुद्ध पदार्थों को हटाता है। यह शिशु की त्वचा को संक्रमण से बचाता है और थर्मोरेगुलेशन (शारीरिक तापमान नियंत्रण) प्रक्रिया में सहायता करता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार, पहला स्नान सामान्यतः जन्म के 24 घंटे बाद किया जाता है, जो शिशु की त्वचा पर मौजूद प्राकृतिक तैलीय पदार्थ को संरक्षित कर उसके स्वास्थ्य में सुधार लाता है।

ओड़िया संस्कृति में जन्मपाणी केवल शारीरिक शुद्धता नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक प्रक्रिया भी है। यह शिशु के नए जीवन में प्रवेश को पवित्र करता है। इसके साथ ही, जन्म के सातवें दिन के बाद शिशु के मुंह पर दी जाने वाली 'लाजपाणी' भी एक अनूठी परंपरा है। इस रीति के अनुसार, शिशु की मां उसके मुंह पर पहली अंजलि जल डालकर उसका मुंह धोती है। लोक विश्वास है कि जिस शिशु के मुंह पर उसकी मां लाजपाणी नहीं डालती, वह भावी जीवन में निर्लज्ज हो सकता है। इसलिए किसी निर्लज्ज व्यक्ति को लक्ष्य कर लोग कहते हैं, 'क्या उसकी मां ने उसके मुंह पर लाजपाणी नहीं डाला था?'

शिशु के जन्म के छठे, सातवें, आठवें या नौवें दिन होने वाले अनुष्ठान को ओडिशा में 'उठियारी' कहा जाता है। उस दिन अंतुड़ी आग जलाकर प्रसूति स्नान करती है और अंतुड़ीशाल साफ किया जाता है। प्रसव के सात दिन बाद इस उठियारी दिन अंतुड़ीशाल से राख आदि निकालकर साफ किया जाता है, जिसे 'अंतुड़ी उठाना' कहते हैं। इसके बाद मां और शिशु जो पहला स्नान करते हैं, उसे शिशु के संदर्भ में 'जन्मपाणी' और मां के संदर्भ में 'उठियारीगाधुआ' कहा जाता है।

'जन्मपाणी' और 'उठियारीगाधुआ' जैसे शब्द ओड़िया भाषा में एक अद्वितीय स्थान रखते हैं। हिंदी, बंगला, मराठी या किसी अन्य भारतीय भाषा में इस शब्द के समान अर्थ वाला कोई शब्द नहीं मिलता। फिर भी, अन्य संस्कृतियों में वृक्षारोपण और शिशु के पहले स्नान से संबंधित कुछ रीति-रिवाज देखे जाते हैं। उदाहरण के लिए, जापानी संस्कृति में 'मियामैरी' रीति के अनुसार नवजात शिशु को आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए मंदिर ले जाया जाता है, जो उसके जीवन की शुरुआत को पवित्र करता है। इसी तरह, भारतीय संस्कृति में 'अन्नप्राशन' या 'नामकरण' रीति शिशु के नए जीवन में प्रवेश को चिह्नित करती है। वृक्षारोपण के संदर्भ में, जनजातीय संस्कृतियों में पेड़ की पूजा की जाती है और उसे जीवनदाता के रूप में स्वीकार किया जाता है। उदाहरण के लिए, मैक्सिको की माया संस्कृति में पेड़ को 'जीवन का अक्ष' (axis mundi) माना जाता है।

फिर भी, 'जन्मपाणी' शब्द की विशिष्टता इसके दोहरे अर्थ में निहित है। यह पेड़ और शिशु दोनों के लिए जीवन की शुरुआत को चिह्नित करता है, जो ओड़िया संस्कृति में प्रकृति और मानव जीवन के प्रति गहरे सम्मान को दर्शाता है। यह शब्द ओड़िया भाषा की सांस्कृतिक समृद्धि को व्यक्त करता है और अन्य भाषाओं में इसकी अनुपस्थिति इसे और भी विशेष बनाती है।

'जन्मपाणी' ओड़िया संस्कृति में जीवन की शुरुआत और पुनर्जनन का एक शक्तिशाली प्रतीक है। यह वृक्षारोपण में जल के वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व को और शिशु के पहले स्नान में स्वास्थ्य और सांस्कृतिक मूल्यों को एक साथ समन्वित करता है। यह शब्द ओड़िया संस्कृति के प्रकृति और मानव जीवन के प्रति गहरे संबंध को दर्शाता है। अन्य भाषाओं में इसके समान शब्द की अनुपस्थिति इसे और भी अनूठा बनाती है। जब हम पेड़ को जन्मपाणी देते हैं या शिशु को पहला स्नान कराते हैं, तो हम जीवन की पवित्रता को आनंद, सम्मान और कृतज्ञता के साथ मनाते हैं। यह परंपरा हमें प्रकृति और मानव जीवन के अंतरंग संबंध की याद दिलाती है।

“पेड़, पृथ्वी की सांस,  
और पेड़ के लिए जन्मपाणी  
जीवन का पहला स्पर्श ।”

नीलांबर रायसिंह भ्रमरवर : ढेंकानाल के एक स्मरणीय शासक

ओडिशा की ऐतिहासिक धरती ने कई महान व्यक्तित्वों को जन्म दिया है, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अविस्मरणीय योगदान दिया। इस माटी ने कई नीलांबरों को जन्म दिया है। एक प्रसिद्ध ओड़िया कवि थे नीलांबर दास, जिन्होंने 'जैमिनी भारत' और 'पद्मपुराण' का ओड़िया भाषा में अनुवाद किया। 'रुद्रस्तुति' और 'पुरुषोत्तम देउळ कार्य' उनके अन्य प्रमुख ग्रंथ हैं। एक अन्य कवि, जिन्हें नीलांबर भंज के नाम से जाना जाता है, हलदिया के राजा थे। उन्होंने 'कृष्णलीलामृत' और 'पंचसायक' नामक दो ग्रंथों की रचना की। नीलांबर शर्मा नामक एक पंडित भी इस धरती पर जन्मे, जिन्होंने पाश्चात्य पद्धति के अनुसार 'गोल प्रकाश' नामक संस्कृत गणित ग्रंथ की रचना की और लीलावती के गणित शास्त्र की टीका लिखी। उनका जन्मस्थान बलांगीर पाटना गड़जात था। नीलांबर विद्यारत्न एक प्रसिद्ध ओड़िया साहित्यकार और शिक्षाविद् थे, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में ओडिशा में साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे, जिनका नाम नीलांबर दास था। मुगल शासनकाल में ढेंकानाल के एक राजा भी थे, जिनका नाम नीलांबर था।
17वीं शताब्दी में ओडिशा राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा था। मुगल शासन का प्रभाव ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में था। 1633 में अंग्रेज व्यापारियों को मुगल सम्राट शाहजहां और ओडिशा के सूबेदार से व्यापार की अनुमति मिली थी। इस समय ओडिशा के गजपति बलभद्र देव थे, जिनके बाद उनके ताबेदार पुत्र राजा नीलांबर रायसिंह भ्रमरबर ने ढेंकानाल का शासन संभाला। 1650 में औरंगजेब ने बलपूर्वक दिल्ली का सिंहासन हासिल किया, जिसने ओडिशा में मुगल शासन के प्रभाव को और जटिल किया। इस कठिन समय में राजा नीलांबर ने ढेंकानाल का शासन संभाला और मुगलों व अंग्रेजों को अपने राज्य में प्रवेश करने से रोका।

राजा नीलांबर एक दूरदर्शी और चतुर शासक थे। उन्होंने ढेंकानाल में एक मजबूत सेना का गठन किया, जिसमें गजारोही, अश्वारोही, पैदल सैनिक, नागा और तेलंगा सैनिक शामिल थे। यह सेना भीमनगरी, हदगड़, करमूल, नुआगड़, डमरजा कटक, गोविंदपुर आदि किलों में सतर्क रहकर बाहरी शत्रुओं के आक्रमण का प्रतिरोध करती थी। राजा नीलांबर ने युद्ध के माध्यम से राज्य की सीमाओं का विस्तार करने की कोशिश न करते हुए आंतरिक व्यवस्था और सीमा सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया। जायगीरी पैक सैनिक युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहते थे, जिसने उनके शासन की स्थिरता को सुनिश्चित किया। उनके शासनकाल में ढेंकानाल में कोई अशांति नहीं हुई, जो उनके कुशल शासन कौशल को दर्शाता है।

राजा नीलांबर नृसिंह के परम भक्त थे। उन्होंने अपने राजगुरु के निर्देश पर पारिमल प्रगना की ब्राह्मणी नदी के तट पर कंतियो गांव में एक वैष्णव मठ की स्थापना की, जिसे ढेंकानाल का राजगुरुगादी के नाम से जाना जाता है। उल्लेखनीय है कि महंत, महापुरुष और हाकिम आदि के आसन या बैठने के स्थान को 'गादी' कहा जाता है। पवित्र ग्रंथों आदि को एकत्र रखने के स्थान को भी गादी कहा जाता है। महापुरुषों की समाधि को भी गादी कहा जाता है। शासकों के पद या अधिकार को भी गादी कहा जाता है। इसी तरह, महंत या महापुरुषों के मठ को भी गादी कहा जाता है। इसलिए, ढेंकानाल के कंतियो पुटसाही ग्राम पंचायत में दो गादियां हैं: महिमागादी-जका और राजगुरुगादी-कंतियो।

राजा नीलांबर ने कई ब्राह्मण शासनों की स्थापना की। उन्होंने पुरी क्षेत्र से मुसलमानों के अत्याचार से त्रस्त होकर आए श्रोत्रिय ब्राह्मणों को आश्रय दिया। उन्हें उचित सम्मान देकर उन्होंने स्वराजधानी से लगभग दस किलोमीटर दूर 'नीलांबर पुर' नामक शासन की स्थापना की और निष्कर लाखराज सनद प्रदान की। यह उनकी धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय का एक उज्ज्वल उदाहरण है।

इसके साथ ही, राजा नीलांबर शैव और वैष्णव धर्म के समन्वयकर्ता थे। उन्होंने ढेंकानाल क्षेत्र में कई शिवलिंगों की स्थापना की और कपिलास, कुआंलो और नागना पीठों के प्रबंधन के लिए सुबनदोबस्त किया। ब्राह्मणी अववाहिका में स्थित अन्य शैव पीठों की सेवा और पूजा के लिए भी वे प्रयासरत रहे। यह सिद्ध करता है कि उनके शासनकाल में ढेंकानाल में एक समन्वयात्मक सांस्कृतिक परिवेश विकसित हुआ था।

राजा नीलांबर के शासनकाल में ओडिशा में राजनीतिक अनिश्चितता व्याप्त थी। 1658 में औरंगजेब के दिल्ली सिंहासन पर चढ़ने से ओडिशा में मुगल शासन का प्रभाव और बढ़ गया। इस परिप्रेक्ष्य में राजा नीलांबर ने अत्यंत सतर्कता के साथ शासन कार्य किया। उन्होंने पड़ोसी राजाओं और जमींदारों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखे। हदगड़ में स्थापित सामंत वंश के बलराम सामंत के साथ उनकी आत्मीयता थी, जिसने उन्हें ढेंकानाल की सेना को मजबूत करने में मदद की। 1659 में खोर्द्धा के गजपति मुकुंददेव के साथ मित्रता स्थापित कर उन्होंने ढेंकानाल की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया। मयूरभंज और केनझर राज्यों पर मुगलों की लालची नजर थी, फिर भी ढेंकानाल स्वतंत्र रहा।

राजा नीलांबर रायसिंह भ्रमरबर का शासनकाल ढेंकानाल के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। उनका चतुर शासन, मजबूत सेना, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समन्वय ने उन्हें एक महान शासक के रूप में स्थापित किया। 1680 में उनके स्वर्गारोहण के बाद भी उनका योगदान ओडिशा के इतिहास में अमर है। उनके शासनकाल ने ढेंकानाल की स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विरासत की रक्षा में एक उल्लेखनीय अध्याय रचा।

**स्रोत:**
1. पूर्णचंद्र भाषाकोश: श्री गोपाल चंद्र प्रहराज
2. ढेंकानाल का ऐतिह्य और संस्कृति: पंडित अंतर्यामी मिश्र